पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/२६

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गुलामगीरी / 27 मांस मजबूर होकर खाना पड़ा। उनके इस आचार-व्यवहार को देखकर आज के जो बहुत ही अहंकार से माली, कुनबी, सुनार, दरजी, लुहार, बढ़ई, (तेली, कुर्मी) आदि बड़ी-बड़ी संज्ञाएँ अपने नाम के साथ लगाते हैं, वे लोग केवल इस प्रकार का व्यवसाय करते हैं। कहने का मतलब यही है कि वे लोग एक ही घराने के होते हुए भी आपस में लड़ते-झगड़ते हैं और एक-दूसरे को नीच समझते हैं। इन सब लोगों के पूर्वज स्वदेश के लिए ब्राह्मणों से बड़ी दृढ़ता से, बड़ी निर्भरता से लड़ते रहे, इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों ने इन सबको समाज के निचले स्तर पर लाकर रख दिया और दर-दर के भिखारी बना दिया। लेकिन अफसोस यह है कि इसका रहस्य किसी के ध्यान में नहीं आ रहा है। इसीलिए ये लोग ब्राह्मण- पंडा-पुरोहितों के बहकावे में आकर आपस में नफरत करना सीख गए। अफसोस ! अफसोस!! ये लोग भगवान की निगाह में कितने बड़े अपराधी हैं ! इन सबका आपस में इतना बड़ा नजदीकी संबंध होने पर भी किसी त्यौहार पर ये उनके दरवाजे पर पका-पकाया भोजन माँगने के लिए आते हैं तो वे लोग इनको नफरत की निगाह से ही नहीं देखते हैं, कभी-कभी तो डंडा लेकर इन्हें मारने के लिए भी दौड़ते हैं। खैर, इस तरह जिन-जिन लोगों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से जिस-जिस तरह से संघर्ष किया, उन्होंने उसके अनुसार उनको जातियों में बाँटकर एक तरह से सजा सुना दी या जातियों का दिखावटी आधार देकर सभी को पूरी तरह से गुलाम बना लिया। ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित सबमें सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकार संपन्न हो गए, है न मजे की बात! जब से ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों में जातिभेद की भावना को पैदा किया, बढ़ावा दिया, तब से उन सभी के दिलो-दिमाग आपस में उलझ गए और नफरत से अलग-अलग हो गए। ब्राह्मण पुरोहित अपने षड्यंत्र में कामयाब हुए। उनको अपना मनचाहे व्यवहार करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गई । इस बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ ।' मतलब यह कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों के आपस में नफरत के बीज जहर की तरह बो दिए और खुद उन सभी की मेहनत पर ऐशोआराम कर रहे हैं ।