पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/२२

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किसान का घोड़ा / 23 जा रहे हैं। उनमें से कुछ लोग घास बेच रहे हैं। कोई लकड़ियाँ बेच रहा है। कोई कपड़ा बेच रहा है। इसी तरह कुछ लोग ठेकेदारी और कुछ लोग क्लर्क आदि की नौकरियाँ करके अंत में पेंशन लेकर मौज कर रहे हैं। इस तरह धन कमाकर इस्टेट बना करके रख रहे हैं। लेकिन उनके पश्चात् उनके ऐयाशी बच्चे, जिनको ज्ञान- ध्यान से कोई मोहब्बत नहीं, वे कुछ ही दिनों बाद बाबू के भाई दरवेशी होकर बाप के नाम से चिल्लाते हुए पेट के ख़ातिर दर-दर भटकते हैं। कइयों के पूर्वजों ने सिपाहगीरी और चतुराई के बल पर जागिरदारी, इनाम आदि कमाए और कुछ लोग शिंदे-होलकरों की तरह प्रतिराजा हो गए थे। लेकिन आज उनके वंशज अज्ञानी अनपढ़ होने की वजह से अपनी जागिरदारी; इनाम गिरवी रखकर या बेचकर आज कर्जदार हो रहे हैं। कुछ लोग तो अनाज के लिए भी मोहताज हो गए हैं। अधिकांश इनामदारों को, जागिरदारों को यह भी मालूम नहीं है कि उनके पूर्वजों ने किस-किस तरह का पराक्रम किया है, किस-किस प्रकार की मुसीबतों को सहा है। ये बातें उनके ध्यान में भी नहीं आतीं । वे लोग बाप की कमाई पर मौज-मस्ती करके, अनपढ़ होने की वजह से दुष्ट और लुच्चे-लफंगों की संगत में फँसकर रात-दित ऐशोआराम और नशे में बेहोश रहते हैं। इनमें से जिनकी जागिरदारी गिरवी न पड़ी हो, या जो कर्ज में न डूबा हो, ऐसा शायद ही कोई होगा। आज जो संस्थानिक है, जिसको कर्ज के बोझ ने छुआ नहीं है, फिर भी उसके इर्द-गिर्द के लोग और ब्राह्मण दीवानजी इतने मतलबी, धूर्त, व्यवहारी होते हैं कि वे हमारे राजा-रजवाड़ों को ज्ञान-ध्यान तथा सद्गुणों की अभिरुचि ही लगने नहीं देते। इस वजह से अपने सही वैभव के स्वरूप को पहचानते नहीं, बल्कि अपने पूर्वजों ने केवल हमारे मजा-मौज के लिए ही राज्य प्राप्त किया है, ऐसा मानकर धर्म की वजह से अंधे हुए, राजशासन स्वतंत्र रूप से चलाने की सामर्थ्य न होने की वजह से, केवल किस्मत पर बल देकर ब्राह्मण दीवान जी पर सौंप देते हैं और उन्हीं की सलाह को अंतिम मानकर चलते हैं। उन्हीं की सलाह पर दिन में गौदान और रात में प्रजोत्पादन करते हुए स्वस्थ रहते हैं। ऐसे राजा-रजवाड़ाओं के हाथ से अपने शूद्र जाति बंधुओं का कल्याण संभव हो सकता है, लेकिन उनके मन में जो विचार कभी भी आया नहीं और जब तक 'ब्राह्मणों मम दैवत' - यह पागलपन उनके दिलो-दिमाग से निकलता नहीं, तब तक कितनी भी माथापच्ची की जाए, वह निरर्थक ही होगी। फिर भी किसी ने उस तरह करने का प्रयास किया तो बचपन से मन पर जो संस्कार मूल पकड़ चुके हैं, उस मतलबी धर्म के विरुद्ध चार बातें सुनकर उस पर विचार करने की बात उनको कैसे जँचेगी ? उनके करीब के दीवान पहले ही ऐसे नि:स्वार्थ और जनहितकारी को