पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/२०

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इशारा / 21 लेकिन अपनी आँखों से अपनी औरतों का यह बेहाल देखना बेकार है। एक बार मनुष्य अपने लिए कोई भी मुसीबत हो, तन को किसी भी प्रकार की पीड़ा क्यों न हो, फिर भी वह सब सह लेगा, लेकिन अपने प्रियजनों का यह हाल होता हो तो वह कभी भी सह नहीं सकता। वहाँ तो देखते ही देखते केवल मरा हुआ हो जाता है । यदि उन्हें ऐसा लग भी रहा हो तब भी वे गरीब लोग कर भी क्या सकते हैं ? पूरी तरह से निराशा छाई हुई थी । विरूपायी थे। उन्हें खाने-पीने के लिए भी कुछ अच्छा मिल जाता, तो गनीमत थी। इसके बारे में ख्वाब में भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। हर दिन ज्वार की या बाजरे की या जोंधरे की रोटी केवल नमक के साथ, कभी हरी-लाल मिरची के साथ या प्याज के साथ खाना पड़ता था। कभी सब्जी के लिए यदि तेल मिल जाए तो नमक मिलना मुश्किल था; नमक मिला तो मिरची मिलना मुश्किल था। कभी ज्वार की या जोंधरे की कनकी को भूनकर उसका सत्तू बना करके खाते-पीते थे। कभी-कभी केवल पत्तीवाली सब्जी-भाजी को ही उबालकर खाते थे। कभी-कभी जंगल के उर्दुबर (गूलर) खाकर उसी के सहारे अपना गुजर- बसर करते थे। कभी-कभी तो सिर्फ पानी पीकर और पेट को रस्सी से बाँधकर खेती-खलिहानों में खून और पसीना बहाते रहते थे। इस तरह दरिद्रता से पीड़ित प्रजा के रुपयों-पैसों को (बड़ी मेहनत से कमाया हुआ पैसा कर द्वारा छीन करके) ऊपर कहे मुताबिक, अपनी जाति-बिरादरी के ब्राह्मणों को भोजन देने में ही फूँक दिया जाता था, यह बड़ी निंदनीय और कुधर्म- नीति की बात थी। उन पैसों का करीब-करीब कुछ अंश भी यदि इस प्रकार के तालाब, सागर, बाँध, कॅनाल बनाने में या उसी प्रकार के दूसरे अच्छे कामों में खर्च किया होता और शेष रुपया-पैसा आर्य ब्राह्मणों की मस्ती, ऐयाशी और निठल्लेपन को बढ़ावा देने में खर्च किया होता, तब भी उससे प्रजा का बहुत बड़ा कल्याण हुआ होता । प्रजा अन्न-वस्त्रों के लिए न घर की न घाट की बनी होती । ब्राह्मण और ब्राह्मण्यग्रस्त राजाओं के नाम को भी कलंक न लगा होता। उन्होंने किसानों के खेतों में इस तरह से, मतलब कॅनाल आदि खुदवाकर पानी पहुँचाने की व्यवस्था की होती, तो उनके खेतों में हरियाली ही हरियाली छाई हुई रहती, समय-समय पर अनाज की एक फसल के बाद दूसरी फसल आती और इस तरह से किसानों में बड़ी आसानी से पहले से दुगुना - चौगुना कर (महसूल) देने की सामर्थ्य आई होती । उससे पंडा- पुरोहित, सत्ताधारी और ब्राह्मण लोग भी मनचाहे लड्डू का भोजन खाकर उठने के बाद उनको भली मोटी दक्षिणा देने की साम भी आई होती । ब्राह्मण-पंडे ओकने तक भोजन कर सकते थे। जो ब्राह्मण पंडा जितने लड्डू