पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/११८

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जाति क्यों नहीं जाती? / 119 गये और उन्होंने ईश्वर पर सबके समान हक के नाम पर वर्णाश्रम व्यवस्था को ललकारा, कर्मकाण्डी हिन्दू धर्म का मजाक उड़ाया और सत्ता, भ्रातृत्व और प्रेम का संदेश दिया। भारत में औपनिवेशिक राज के साथ आधुनिकता, शिक्षा और विज्ञान का प्रसार हुआ और समाज में परस्पर संपर्क और संचार भी ज्यादा सुगम बना। अंतर्मुखी आत्मनिर्भर या कूपमंडूक ग्राम समाज की व्यवस्था में दरार पड़ने लगी। लोकतंत्र और भ्रातृत्व के पश्चिमी विचारों से प्रभावित भारतीय बुद्धिजीवियों में भी समाज सुधार की ललक पैदा हुई और स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद विद्यासागर जैसी हस्तियों ने भक्तिकालीन संतों के मानवतावाद, पश्चिम के तर्कवाद और वैदिक दर्शन के बीच तालमेल बैठाने के प्रयास किये। जल्दी ही दलित जातियों में भी जागृति की नयी लहर पैदा हुई जिसने नारायण स्वामी, ज्योतिबा फुले, पेरियार और अंबेडकर जैसी हस्तियों को इतिहास के रंगमंच पर ला खड़ा किया । अंग्रेजों द्वारा जाति बिरादरी के नेताओं का मजमा जोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में फूट डालने की कोशिशों से सशंकित, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी, गांधी जी की अगुआई में, हरिजन सेवा और अछूतोद्धार को अपने कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया। किन्तु औपनिवेशिक काल में दलित जातियों के आंदोलनों की दो बड़ी सीमाएं रहीं। भारतीय समाज और इसी के साथ राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व में, सवर्णों के प्रभुत्व से आशंकित, इनके जातिविरोधी नेताओं ने, अक्सर ही, स्वयं को साम्राज्यवादविरोधी आंदोलन से ही काट लिया। दूसरी ओर दलित उत्पीड़न की आर्थिक बुनियाद, भूमि पर सामंती शिकंजे को तोड़ने की दिशा में बढ़ने से ये आंदोलन बचते रहे। लेकिन भारतीय जनता में साम्राज्यवाद विरोधी भावना इतनी तीव्र होती गयी कि जाति विभाजनों के बने रहते हुए भी देशभक्ति की लहर ने जनता को एकजुट कर दिया। स्वतंत्रता के साथ इस जनता ने अपने बेहतर भविष्य के सपने जोड़े थे। यही कारण है कि स्वतंत्र भारत के संविधान को सामाजिक-आर्थिक समानता के लक्ष्य को अपनाना पड़ा। परन्तु समतामूलक समाज के निर्माण के ये पवित्र लक्ष्य, सिर्फ संविधान के पन्नों की शोभा बढ़ाते रहे- देश पूंजीवादी रास्ते पर धकेला जाता रहा, आर्थिक असमानताएं तो बढ़ती ही गयीं- सामाजिक समानता के लिए जरूरी कदमों को भी नहीं उठाया गया। इनमें सबसे आवश्यक कदम था भूमिसुधार। देश की अस्सी फीसदी आबादी गांवों में थी और वहां उत्पादन के मुख्य साधन, भूमि पर भूस्वामियों का शिकंजा तोड़े बगैर आर्थिक समता की वह नींव नहीं डाली जा सकती थी- जिस पर कि सामाजिक समता का ढांचा खड़ा होता। ग्रामीण