पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/११७

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118 / जाति क्यों नहीं जाती ? चुनौती के समाज को जकड़े रखने का मौका मुहैया हुआ। ग्रामीण समाजों के विस्तार के साथ जंगलों का सफाया हुआ और उनमें रह रही जनजातियां भी ग्रामीण समाजों के अधीन होती गईं। जंगलों में, अपनी अलग ही सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की गोद में सोये हुए इन आदिवासियों की नींद जब ग्रामीण और कस्बाई अर्थव्यवस्था के अतिक्रमण से खुली तो उन्होंने पाया कि वे भी हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था में शरीक कर लिये गये हैं। लेकिन एक नई दलित जाति के रूप में ही। इस तरह, आदिवासी समाजों के हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था में विलीनीकरण से दलित जातियों की नई-नई किस्में अस्तित्व में आती गयीं। इनमें से हर दलित जाति आर्थिक के साथ ही सामाजिक शोषण का शिकार बनती गयी। आदिवासियों की अपनी भाषा व संस्कृति है और वे प्रकृति उपासक हैं। हिन्दू वर्णाश्रम व्यवस्था ने उनके बड़े हिस्से की यह स्वायत्तता छीन ली । किन्तु वर्णव्यवस्था का दलित हिस्सा बनने के बाद भी दलित जातियों ने अपने पूर्वजों की तमाम परंपराओं, रस्मों- रिवाजों और सांस्कृतिक जीवन को जारी रखा। जाति विरोधी उभार वर्ण व्यवस्था का वटवृक्ष इस तरह फैलता चला गया। वर्ण व्यवस्था एक जड़ सामाजिक संस्था थी, जिसे सामंती राज्य और हिन्दू कर्मकाण्डी धर्म-दर्शन का समर्थन हासिल था । आर्थिक के साथ वैचारिक दासता की यह प्रणाली मनुष्य को अपनी हीनता की स्थिति स्वीकार कराती थी और इस तरह वर्णाश्रमवादी व्यवस्था के भेदभाव व उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह की संभावनाओं को जनता के मस्तिष्क में ही कुचल डालती थी। इस आध्यात्मिक तानाशाही से, वर्णव्यवस्था को मिले इस स्थायित्व के बावजूद जाति प्रथा को हमेशा ही चुनौतियां मिलती रहीं। अधीनता, भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ असंतोष उभरे और वर्णव्यवस्था की शिखर सत्ता को समय-समय पर, समझौते और समायोजन करने पड़े। भूपेंद्र नाथ दत्त ने बहुत पहले ही बंगाल के उदाहरणों से साबित किया था कि दक्षिण और उत्तर की कई गैर ब्राह्मण जातियां किस तरह संघर्ष करके ब्राह्मण बन गयीं। इसी प्रकार उत्तर पश्चिम में बसी तमाम दलित व चण्डाल जातियां भी लंबा संघर्ष चलाकर वर्ण व्यवस्था की निचली सीढ़ियों से कुछ ऊपर चढ़ गईं। पहले बौद्ध व जैन धर्म और फिर इस्लाम और ईसाई धर्म अपना कर भी बहुत सी दलित जातियों ने सामाजिक समानता व सम्मान हासि करने की, कभी सफल तो कभी असफल कोशिशें कीं। भक्तिकाल वह एक और दौर था जब तमाम दलित संत, कवि और विचारक उभरकर सामने आ