पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/११६

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जाति क्यों नहीं जाती ? / 117 शुरूआती दौर में पेशों के हिसाब से वर्णों में बंटवारा हुआ होगा। तब पेशे बदलने की स्वतंत्रता रही होगी और जन्म या पूर्व जन्म के कर्मों के बजाय -मौजूदा कर्म और पेशे के आधार पर, वर्णों से लोगों की पहचान होने लगी होगी। लेकिन समाज में वर्गों के उदय और शोषण पर आधारित व्यवस्था के पनपने के साथ ही शासक वर्गों या वर्णों ने सबसे पहले, अपना पुश्तैनी हक बनाये रखने तथा कामगार वर्गों को काम से बांधे रखने के लिए, वर्णों को जाति का रूप देना शुरू किया होगा। जाति शासक वर्गों के हाथ में जनता को विभाजित और अधीन रखने का एक आध्यात्मिक और भौतिक अस्त्र बन गया होगा। भारत में दास प्रथा पर आधारित सामाजिक उत्पादन की रोम जैसी व्यवस्था नहीं रही। हालांकि दासों का जिक्र जरूर मिलता है। ध्वजाहृतो, भक्त दासों, गृहजा, क्रीत, दत्रिमो, दण्ड दासश्च, सप्तैतः दास यौनियः (युद्ध में जीते गये, भक्ति भाव से बने, दास परिवार से आये, खरीदे गये, दान किये गये, पैत्रिक संपत्ति के रूप में प्राप्त और दण्ड स्वरूप बने सात प्रकार की दासों की योनियां होती हैं । ) फिर भी, भारत में समूची सामाजिक उत्पादन प्रणाली दासों के श्रम पर ही आधारित रही हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। दरअसल, दास प्रथा ने भारत में जो विशिष्ट रूप लिया वह जाति व्यवस्था ही थी जिसमें समाज में मेहनतकश वर्ग को शूद्रों और चाण्डालों की जाति श्रेणी में रखकर, सामंती प्रभुओं के अधीन होकर उत्पादन कार्य करने के लिए मजबूर कर दिया गया । रोम की तरह, हाथ पैरों में बेड़ियां डालने की बजाय भारतीय दासों के दिलो-दिमाग पर बेड़ियां डाल दी गयीं । शोषित वर्ग, प्रारब्ध या पूर्व जन्मों के कर्मों से अपनी दासता को औचित्यपूर्ण समझता रहा और बेड़ियां तोड़ने की जगह अगले जन्म में बेहतरी की आशाएं संजोये, बेडियों को भक्ति भाव से पहने रहा । जाति पर आधारित शोषित वर्गों की अधीनता की यह व्यवस्था शायद इसीलिये इतना लंबा जीवन भी जी सकी। सामंती व्यवस्था के विकास के साथ जाति व्यवस्था खत्म नहीं की गई बल्कि जाति व्यवस्था को सामंती उत्पादन प्रणाली के हित के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा। इस जाति व्यवस्था के कारण ही ऐसे आत्म निर्भर ग्राम समाजों का उदय हुआ जहां हर पेशे का काम उपलब्ध था और जाति व्यवस्था के स्वचालित श्रम विभाजन के कारण, हर ग्राम समाज एक स्वायत्त अर्थव्यवस्था की तरह चल रहा था । शिखर पर सामंती प्रभुओं की कलह, युद्ध और परिवर्तनों से बेखबर, यह स्वायत्त अर्थव्यवस्था अपने आप ही खोयी हुई सैकड़ों साल तक कायम रही। इससे एक ओर तो सामंतवाद को स्थिरता मिली और दूसरी ओर जाति व्यवस्था को बिना किसी गंभीर