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116 जाति क्यों नहीं जाती ? गरज से अंग्रेजों ने भारत की जातिवादी रूढ़ियों में कुछ फेरबदल की कोशिशें की। किन्तु 1857 के गदर के बाद से उनकी रणनीति में भी बदलाव आ गया। भारतीय जनता को दबाये रखने के लिए उसे बांट कर रखना जरूरी था। बींसवी सदी में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के उभार के बाद तो जातीय विभाजनों को बरकरार रखना और उनका राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए इस्तेमाल करना ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति का हिस्सा बन गया। दूसरी ओर राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख नेतृत्व स्वयं पूर्णत: आधुनिक और जनवादी नजरिया अपनाने में असफल रहा । उस पर हिन्दू पुनरुत्थानवाद की असरदार छाप रही और एक मौके पर स्वयं महात्मा गांधी तक ने स्वयं को सनातनी हिन्दू और वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थक घोषित कर डाला। राष्ट्रीय नेतृत्व का यह वैचारिक पहलू, उनके सामंती शक्तियों को लुभाने या नाराज न करने की कार्यनीति से मेल खाता था । सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ लेकिन सामंती शक्तियों के साथ गठजोड़ बनाने की अंग्रेजी विरासत को नये शासक भारतीय पूंजीवादी वर्ग ने भी अपना लिया। स्वतंत्र भारत में सामंतवाद पर न तो आर्थिक क्षेत्र में भूमि सुधारों के जरिये निर्णायक चोट की गई और न ही सामंती चेतना को जनवादी व वैज्ञानिक चेतना के प्रसार से ध्वस्त किया गया । नतीजा सामने है। आधुनिक भारत में भी जाति की बेड़ियां समाज को जकड़े हुए हैं और मानवीय गरिमा व मानव अधिकारों का निकृष्टतम हनन लगातार जारी है। अमरीका की सिलीकॉन वैली (कम्प्यूटर केंद्र) में नाम कमा रहे भारतीय नौजवान, कभी स्वेच्छा से तो कभी मजबूरी में, अपने गृहदेश में, जाति और गोत्रों की जकड़ बंदी में ही विवाह की रूढ़ियों पर चल रहे हैं। सामाजिक परिस्थितियां वे कौन सी सामाजिक परिस्थितियां थीं जिन्होंने इस दुर्दम्य राक्षस, जाति व्यवस्था को भारतीय समाज में जन्म दिया और जिससे टकराने के बजाये, समझौता कर लेने में ही मुगलों, अंग्रेजों और स्वतंत्र भारत के पूंजीवादी शासकों ने अपनी बेहतरी समझी ? क्यों यह व्यवस्था इतनी मजबूत है कि हिन्दू धर्म को ही छोड़ देने और बौद्ध, जैन, इस्लाम और ईसाई धर्म अपना लेने के बावजूद इन नवधर्मावलंबियों का भी इस जाति व्यवस्था ने पीछा नहीं छोड़ा? क्यों अंततः नवबौद्ध, नव ईसाई या मुस्लिम समुदाय के पिछड़े और दलित तबके पुनः आरक्षण की मांग करने के लिए मजबूर हो गये ?