पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/११४

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जाति क्यों नहीं जाती ? / 115 हैसियत को परिभाषित किया गया और उन्हें जायज भी ठहराया गया। ईसा पूर्व तीन- चार सौ साल पहले से शुरू हुये दौर में, जाति उपजाति विभाजनों का एक विराट पद सोपान तंत्र खड़ा हो गया जिसे वैधानिक रूप में मनुस्मृति ने सूत्रबद्ध कर में डाला। इधर इन अंतहीन विभाजनों और उनकी त्रासद अभिव्यक्तियों पर विवाद भी जारी रहे। गीता में कृष्ण से कहलवाया गया: चार्तुवर्ण मयां सृष्टं गुण कर्म विभागशः (मैंने ही चार वर्णों की गुण व कर्म के विभाजन के आधार पर रचना की है।) यहां कर्म-पूर्व जन्म के कर्म न होकर सिर्फ कर्म हैं। इससे आभास मिलता है कि जन्म से या पूर्व जन्म के कर्म से जाति का जोड़ा जाना शुरू से मौजूदा नहीं था। दूसरी और समाज में रूढ़ हो गयी वर्ण व्यवस्था और उसके उत्पीड़क व अमानवीय स्वरूप के खिलाफ लोकायत की परंपरा में बौद्ध और जैन दृष्टिकोण उभरकर आये। बौद्धों और जैनों की कुछ शताब्दियों तक श्रेष्ठता कायम रहने के बाद ये दोनों धर्म भी शासक वर्गों के शिकंजे में चले जाने से आम जनता की पहुंच से बाहर निकल गये और सामंती आंगन में इन क्रांतिकारी और जनोन्मुखी धर्मों पर भी काई जमने लगी। वे, शोषण और अत्याचार से मुक्ति की जनआकांक्षाएं न रहकर, शासक वर्गों के आध्यात्मिक आत्म औचित्य और यहां तक कि व्यभिचार का हथियार बन गये। बस इसी मोड़ पर वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मणवादी धर्म जिसे आज संघ परिवार हिंदू धर्म के नाम से पुकारता है के कुचले हुए नाग ने पलट कर वार किया। बौद्ध और जैन धर्मों का सफाया कर दिया गया और ब्राह्मण धर्म के प्रभुत्व के साथ वर्ण व्यवस्था की पताका फिर लहराने लगी । मुगलों के आने के साथ इस्लाम के समानता के दर्शन की नैतिक चोट से, भक्तिकालीन व सूफी धाराएं पनपीं जिन्होंने धार्मिक कूप मण्डूकता व वर्ण व्यवस्था की विद्रूप अमानवीयता पर प्रहार किया। दलितों के संत, कवि और दार्शनिक उभर कर सामने आये। सिख धर्म की नींव पड़ी जो स्वयं ही सामाजिक सुधार का एक नया आन्दोलन था। बहुत सी दलित जातियों ने खुद को आजाद करना चाहा, कुछ की हैसियत बढ़ी, कुछ कुचल दी गईं लेकिन वर्ण व्यवस्था की बुनियाद नहीं हिल सकी। खुद मुगलों ने हुक्मनामे जारी कर अपने राज्यतंत्र को वर्णव्यवस्था से छेड़छाड़ करने की मनाही कर दी । जब अंग्रेजों ने भारत में पूंजीवादी शोषण की व्यवस्था थोपना शुरू की तो उनका सामना भी वर्णव्यवस्था के पिशाच से हुआ। पूरे भारतीय समाज को एक बाजार में बदलने और सभी जातियों के लोगों को पूंजीवाद का चाकर बना देने की