पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/११३

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114 / जाति क्यों नहीं जाती ? विचित्र संस्था किन्तु सामाजिक चेतना तो खुद सामाजिक परिस्थितियों की उपज होती है- जैसा एंगेल्स ने कहा था । जाति चेतना क्यों जीवित है और पीढ़ी दर पीढ़ी क्यों उसका पुर्नजन्म हो रहा है? क्योंकि वे सामाजिक परिस्थितियां लगातार मौजूद हैं जो उसे फलने फूलने की जमीन मुहैया कराती हैं। जाति, भारतीय समाज की एक विचित्र संस्था है। इसमें समाज को कितने ही तबकों और हर तबके का कितने ही संस्तरों में बंटवारा कर दिया गया है। हर तबका स्वयं को एक जाति और उसका हर संस्तर स्वयं को उपजाति मानता है, जिसे कभी गोत्रों से, कभी उपनामों से तो कभी अपने क्षेत्रों की पहचानों से जाना जाता है। जाति की तीन मुख्य विशिष्टताएं होती हैं । सबसे पहले तो हर जाति की शुद्धता - अशुद्धता की अपनी मान्यताएं होती हैं। हर जाति स्वयं को कुछ जातियों से शुद्ध मानने और कुछ जातियों के अपने से भी ज्यादा शुद्ध होने की धारणा रखती हैं। इस पद सोपान में, शिखर पर ब्राह्मण जाति है जो किसी भी अन्य जाति को अपने से ज्यादा शुद्ध नहीं मानती और तल में चाण्डाल है जिनसे ज्यादा अशुद्ध और कोई जाति नहीं मानी जाती । दूसरी विशेषता इन संस्थाओं के अंतर्मुखी होने की है। हर जाति या उपजाति अपने सामाजिक व रस्मो-रिवाजी जीवन के संबंध में अपनी विशिष्ट पद्धतियां, शैलियां, रूप व परंपराएं अपनाती हैं । वैवाहिक संबंधों से लेकर दाह संस्कार तक हर जाति अपनी कुछ खास परंपराओं का पालन करती है। जाति उत्पीड़न व जाति असमानता के प्रति असंतुष्टि की भावनाएं स्वयं से उच्च जाति के प्रति तो होती हैं, लेकिन स्वयं से नीची समझी जाने वाली जाति के प्रति जातिवादी रुख ही बना रहता है । पुनर्जन्म और कर्मफल का सिद्धांत, चेतना के स्तर पर, जाति विभाजन को औचित्य प्रदान करता है और सुदृढ़ बनाता है, आत्मा के आवागमन की मान्यता के आधार पर, पुनर्जन्म की कल्पना की जाती है और पूर्व जन्मों के कर्मों से, वर्तमान जन्म की जाति का औचित्य सिद्ध किया जाता है। आर्य सभ्यता के भारतीय भूखंड के उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के प्रारंभ में जाति के बजाय वर्णों की चर्चा होती है। वर्ण, वर्ग भी हो सकते हैं और रंग भी। किन्तु केवल दो ही वर्णों का जिक्र आता है- ब्राह्मन और विशू । जहां ब्राह्मन कबीले का मुखिया व पुरोहित दोनों है वहीं शेष सारी आबादी सिर्फ एक वर्ण-विश् में रख दी गई है। बहुत बाद में ऋग्वेद में जोड़ दिये गये पुरुष सूक्त में वर्णों की संख्या बढ़ाकर चार कर दी गई और ब्रह्मा के मुख्य से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्रों की उत्पति बताकर, इन चारों वर्गों के पेशों व सामाजिक