पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/११०

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जाति, वर्ग और संपत्ति के संबंध / 111 'रहकर जातिगत लड़ाई चलाने की परंपरा को छोड़ा जाय। शुरुआत के दौर में दलित जातियों के आंदोलन को एक जाति के विरुद्ध दूसरी जातियों के आंदोलन के रूप में चलाने से बचा नहीं जा सकता था। अछूतों के सिलसिले में तो—जिन्हें मानवीय जीवन का अधिकार ही नहीं था - - इसी तरह से आंदोलन चलाना निहायत जरूरी था, मगर इस परंपरा ने एक अलगाव की स्थिति पैदा कर दी है जिसकी वजह से इस सचाई पर भी पर्दा पड़ता है कि दूसरी जातियों में भी मेहनतकश हिस्से हैं जिन्हें उनके जातिवादी नेतृत्व से अलग करके अपने साथ लाना होगा और मिलजुलकर आम दुश्मन का सामना करना होगा। कुछ दलित जातियों के अवसरवादी तत्वों और निहित स्वार्थों की भी कोशिश होती है कि उनके पीछे चलने वाले लोग आम संघर्षों में शिरकत न करने पाएं और उनकी नेतागिरी चलती रहे। यह स्थिति बदलनी होगी। जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में कमी न लाते हुए भी जनवाद और सामाजिक प्रगति के लिए आम संघर्ष में उन्हें अपने में शामिल करने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए । हमें यह समझना होगा कि वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था संपत्ति के संबंधों पर आधारित है। ये संपत्ति के संबंध ही जातिवादी तथा वर्गीय उत्पीड़न को बरकरार रखे हैं। यह सोचना अपने को धोखा देना है कि अर्थव्यवस्था पर भूस्वामियों तथा इजारेदारों के कब्जे को खत्म किये बिना और पूंजीवादी - सामंती सरकार के शासन को उखाड़े बिना छुआछूत या जातिवाद को मिटाया जा सकता है । जाति व्यवस्था के खात्मे का सवाल पूंजीपति- भूस्वामी वर्ग के खात्मे और समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने के सवाल से जुड़ा हुआ है। संदर्भ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. कार्ल मॉर्क्स, “द ब्रिटिश रूल इन इंडिया", न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, (जून, 1883)। वही। रजनी पामदत्त, इंडिया टुडे, मनीषा, कलकत्ता : 1970, पृ० 327 । मोहनदास कर्मचंद गांधी, 'यंग इंडिया' (अक्टूबर, 1921 ) । 'कालोनियल थीसिस' सिक्स्थ कांग्रेस ऑव द कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, 1928 । "मेमोरैन्डम आन नेशनल इंटीग्रेशन, " 1968, सी० पी० आइ० (एम) । " मोहनदास कर्मचंद गांधी, "द स्टोरी ऑव माइ एक्सपेरीमेंट्स विद टूथ " । वी आर आम्बेडकर, "एड्रेस टू आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासिज कांग्रेस", 1930 | देखें : गेन ऑमवेत, “ कल्चरल रिवोल्ट इन ए कालोनियल सोसाइटी; द नाम ब्राह्माण