पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/१०७

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108 / जाति क्यों नहीं जाती ? आधार बनाकर हाल ही में रखे गये एक अनुमान के अनुसार, 1977-78 में, ग्रामीण क्षेत्रों में 48 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों में 41 प्रतिशत गरीबी की रेखा से नीचे जिंदगी बसर कर रही है। इस आधार पर गरीबों की कुल संख्या करीब 29 करोड़ होगी। 2 दरअसल, गरीबों की वास्तविक संख्या इस अनुमान से कहीं बहुत अधिक बैठेगी, क्योंकि यह अनुमान तो गरीबी की रेखा की मनमानी परिभाषा पर आधारित है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी पहले ही विस्फोटक हालत में पहुंच चुकी है। शहरी क्षेत्रों में रोजगार दफ्तरों में रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 1 करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। अनुमान है कि कुल बेरोजगारी 4 करोड़ से भी ऊपर पहुंच चुकी है। (सरकारी आंकड़े बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति को छिपाने की कोशिश करते हैं। योजना के दस्तावेजों में 1973 तक पूरी तरह बेरोजगारों की संख्या के 40 लाख होने का अनुमान लगाया गया था। कभी-कभी रोजगार पानेवालों को मिलाकर इन बेरोजगारों की संख्या का उनका अनुमान ही 1 करोड़ 86 लाख का था) । एक तरफ अगर जमीन तथा पूंजी कुछ हाथों में इकट्ठी हो रही है तो दूसरी तरफ गरीबी और बेकारी बढ़ रही है। आजादी के बाद के तीस सालों के अंदर विकसित होने वाली यह एक वर्गीय सचाई है। सामाजिक भेदभाव के साथ ही अछूतों तथा दूसरे मेहनतकशों की जातियों तथा उपजातियों की समस्या आज आम भूमिहीनता तथा बेकारी की समस्या से तथा पूंजीवादी रास्ते के तहत सभी तबकों की बढ़ती हुई तबाही की समस्या से अविभाज्य रूप से जुड़ गयी है। शुरुआत के सालों में यह सचाई आसानी से समझ में नहीं आती थी, अब यह सचाई इतनी साफ है कि इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जमीन का पुनर्वितरण करना और भूमि पर जमींदारों की - जिनमें से ज्यादातर उच्च जाति के हैं- इजारेदारी को खत्म करने का काम आज तमाम भूमिहीनों और बेरोजगारों की जरूरत बन गया है। पिछड़ी हुई चेतना मगर जो तबाह हो रहे हैं उनकी चेतना इस सचाई के एहसास से अभी पीछे है। लगता है कि एक संयुक्त संघर्ष के बजाय, जाति संघर्ष ज्यादा जोर पकड़ रहे हैं। आज एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ लड़ने के लिए खड़ा किया जा रहा है जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस तरह के आपसी झगड़े आये दिन की चीज हो