देश में सम्पत्ति का एक समान बँटवारा होना चाहिए, धनी-निर्धन
की विषमता दूर कर देनी चाहिए, इत्यादि सुन्दर सिद्धान्तों का
प्रचार करने वाले सोशलिस्ट हिन्दू भी चातुर्वर्ण्य-मर्यादा की रक्षा
के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। कारण यह है कि मनुष्य
स्वभावतः स्वार्थी है। वह दूसरों के कष्ट का उतनी अच्छी तरह से
अनुभव नहीं कर सकता, जितनी अच्छी तरह से कि वह अपने
कष्टों का करता है । सवर्ण हिन्दुओं को जन्म से उँचाई का पट्टा
मिला हुआ है, इस लिए वे शूद्र के कष्टों का अनुभव नहीं कर
सकते । हाँ, धनी-निर्धन की विषमता उन्हें भी तकलीफ़ देती है। इस
लिए वे सम्पत्ति के एक ममान बँटवारे का प्रचार करते हैं। ये लोग
भूल जाते हैं कि संसार में केवल आर्थिक शक्ति ही सर्वोपरि नहीं ।
बड़े बड़े करोड़पति लंगोटबन्द साधुओं की पद-धूलि लेते दखे
जाते है । अहीर और ब्राह्मण मज़दूर दोनों आर्थिक दृष्टि से एक
समान होते हुए भी, अहीर ब्राह्मण के शाप से डर कर उसका
पूजन करता है और ब्राह्मणा मज़दूर की गाली तक सहन करता
है। यदि साम्पत्तिक और शासन-शक्ति ही सब कुछ होती, तो
बड़े बड़े राजा और नवाब कङ्गाल साधुओं और फ़कीरों के दरबार
में विनीत भाव से नङ्ग पांव चल कर न पहुँचते । परम्परागत
धार्मिक कुसंस्कारों ने ब्राह्मण और भङ्गी के बीच जो कल्पित उच्चता
और पवित्रता की दीवार खड़ी कर दी है, जब तक उसे नहीं
गिराया जाता, तब तक न आर्थिक साम्य सम्भव है और न उस से
उद्देश्य की पूर्ति ही हो सकती है । खेद है कि भारत में आज तक
जितने बड़े बड़े सुधारक हुए हैं, वे प्रायः सवर्ण हिन्दुओं में ही पैदा
हुए हैं, इसलिए उन्हें चातुर्वण्र्य से होने वाली घोर हानि का
यथार्थ रूप से अनुभव नहीं हुआ, नहीं तो वे बाकी सब बातों
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क्या चातुर्वर्ण्य श्रम-विभाग है?
