ही जानती हैं। कमला और किशोर ने भी अपने घर छोड़ने
के बाद से आज तक की राम-कहानी कह सुनाई । बाल-चीत
करते करते रात के बारह बज गये । अब सब लोग खा-पीकर
सो रहे ।
प्रातः काल भाग्यवती सब को घर ले आई ।
दीवान रत्नचन्द लज्जा के मारे अपने कमरे से बाहर न निकले । किन्तु किशोर व उनके दर्शनों के बिना चैन कहाँ ? वह सीधा उनके कमरे में पहुंँचा और पैरों पर सिर नवा कर बोला-पिता जी, मेरा अपराध क्षमा कीजिए ।
रत्नचन्द ने उसे उठाकर छाती से लगाया, उसके मस्तक को चूमा, फिर रुँधे हुए कण्ठ से कहा--बेटा, तुम सब प्रकार से निरपराध हो । तुम वीर भी हो और न्यायप्रिय भी । यदि तुम मेरे कहने से कमज़ा का परित्याग कर देते, तो सचमुच बड़ा भारी अपराध करते । मैं डरपोक हैं। समाज की कटूक्तियों से डर गया था। मैंने भी पाप किया कि तुम जैसे अज्ञाकारी पुत्र को घर से बाहर निकाल दिया । मुझे क्षमा करो बेटा !
यह कहते हुए वह बच्चों के समान फूट-फूट कर रोने लगे ।
किशोर ने उन्हें धीरज बँधते हुए कहा--पिता जी, मुझे लज्जित न कीजिये । मुझे उस दिन इतना दुःख न हुआ था, जितना अप को इस दशा में देख कर हो रहा है। होनहार होकर ही रहती है। प्रत्येक बुराई में कोई न कोई भलाई छिपी रहती हैं। आप दुःखी न हो।" इसके बाद उसने घर से निकलने से लेकर वापस आते तक सारा वृत्तान्त पिता के समक्ष कह सुनाया। वह बोला--आपकी की उस दिन की अप्रसन्नता भी ईश्वर की अनुकम्पा सिद्ध हुई । इससे यूरोप-भ्रमण भी हो गया, और