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जात-पांत का गोरखधंधा

पाठकों से मेरी प्रार्थना है कि वे श्रीमद्भागवत के बताये हुये प्राचीन धर्म अर्थात् सनातनधर्म के स्वरूप को जानें और सोचें कि वह कैसा आनंद का समय होगा जब कि सब के सब एक ईश्वर के उपासक, एक वेद के मानने वाले, एक ओंकार मंत्र को अपने वाले, एक ही अग्नि में साथ साथ हवन करने वाले, एक ही जाति के थे और आर्यों ने उस समय सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य स्थापित किया था तो इसमें आश्चर्य की बात की क्या है। आज भी जिस मनुष्य-समाज में भागवत के बताये हुये एक दो गुण भी मौजूद हों उनके अभ्युदय में संदेह नहीं हो सकता है। विचार से देखें तो बहुत से उदाहरण हमारी आंखों के सामने मौजूद हैं।

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आर्य ग्रंथों में जाति का लक्षण

श्रीमद्भागवत का प्रमाण तो पाठकों ने देख लिया अब देखें कि दर्शनशास्त्रों का जाति के विषय में क्या निर्णय है, प्रथम गौतम ऋषि के बनाये हुये "न्यायदर्शन" को लीजिये, ऋषि 'जाति' का लक्षण करते हैं:-

"आकृतिर्जातिर्लिङ्गाख्या"

( न्यायर्दशन २ । २ । ७० )

अर्थः--जाति के पहचानने का जो हेतु है उसका नाम 'आकृति' है और जिससे जाति और जाति के अवयव पाहचाने जाते हों ऐसे अवयव संयोग-विशेष को आकृति कहते हैं।