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अधिक वेतन के उच्च पद क्यों माँगते हो? आप उनके चपरासी और क्लर्क बनें, वे अफसर बने रहेंगे। इससे आपको संतोष रहेगा। जो बात आप अपने लिये पसंद नहीं करते, उसे मानने के लिये दूसरों को क्यों विवश कर हो?

आक्षेप—इस बिल का निर्णय साधारण लोगों के बहुमत से नही, वरन् शास्त्र को जाननेवाले थोड़े-से विद्वान् पंडितों की सम्मति से करना चाहिए।

उत्तर—आप अभी तो कहते थे कि बहुत थोड़े हिंदू इसके पक्ष में हैं। फिर डर क्यों गए?

बात असल में यह है कि नानक, गोविंदसिंह, राममोहन राँय और दयानंद जिन भी महापुरुषों ने पहले जाति-पाँति को तोड़ने का उद्योग किया, जन सबका जन्म उच्च जातियों में ही हुआ था। वे जाति-पाँति से पीड़ित शूद्रों और अछूतों के दुःखों को भली-भांति अनुभव नहीं कर सकते थे। दूसरे, हिंदू-प्रभुता के युग मैं दलित भाइयों को विद्याध्ययन, धनोपार्जन, उत्तम खान-पान और स्वच्छ रहन-सहन की आज्ञा न थी। गौतम घर्मसूत्र और मनुस्मृति आदि ग्रंथ उनके लिये इन उत्तम बातों का निषेध करते थे। उस समय वे निर्बल, निर्धन और ज्ञान-बीक्षु-विद्वान थे। वे अपने अत्याचारी हिन्दुओं के विरुद्ध सिर न उठा सकते थे। इसीलिये जाति-पाँति न टूट सकी। परंतु अब समय बदल चुका है, हिंदू-प्रभुता नष्ट हो चुकी है। इस्लाम और ईसाई धर्म ने भारत में अपने अड्डे जमा लिए हैं। वे हिन्दुओं के सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित शूद्रों और अछूतों को लेने के लिये हर समय बाँहें फैलाए रहते हैं। अब अँगरेजी राज्य के प्रताप से मद्रास के अब्राह्मण—शूद्र और अछूत—भी लिख-पढ़कर उच्च पदाधिकारी बन गए हैं। उनके पास धन और संपत्ति भी है। शिक्षा मे उनके ज्ञान-चक्षु खोल दिए हैं। वे अब जन्माभिमानी ब्राह्मणों की सकी।