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रिवाज का अलिखित जानता जिसे संस्कृत में सदाचार कहते है। क्योंकि वियय कहता है—

श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः
सम्यक संकल्पजः कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम्।

अर्थात्ध-र्म (कानून) के मूल ये हैं—वेद, स्मृति, अच्छे मनुष्यों के काम (सदाचार), अपने धंतःकरण का तर्क-संगत आदेश, शुभ संकल्प से उत्पन्न हुई कामना अर्थात् लोक-हित की इच्छा।

यह एक समाज-शास्त्र-संबंधी प्रसिद्ध नियम है कि रीति-रिवाज समय की प्रगति के साथ बदजते हैं। ऊपर की सब बातें प्रस्तावित दिल के उद्देश्य तथा भाव के विरुद्ध है, क्योंकि हिंदुओं की भारी बहुसंख्या इसके पक्ष में नहीं।

उत्तर—आपने इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया कि यह विस्व याज्ञवल्क्य की उपर्युक्त कसौटी के विरुद्ध है। केवल इतना कह देने से ही आपकी बात मान्य नहीं हो सकती। हम तो समझते हैं, यह बिलकुल उसके अनुसार है। फिर यह भी ठीक नहीं कि बहुत-से हिंदू इसके पक्ष में नहीं। दूसरे, बीमार कड़वी दवा पीने से सदा डरा करता है, चाहे वह जानता भी हो कि इससे मुझे आराम हो जायगा।

आक्षेप—सर रबींद्रनाथ जाति-पाँति के विरुद्ध हैं। उनके बाप-दादा भी इसके विरुद्र ही थे। पर क्या उनमें से किसा ने भी अपनी किसी संतान का विवाह ब्राह्मणों से बाहर किया? यदि वे हृदय से जाति-पाँति के विरोधी होते, तो ज़रूर कर्म में भी इसे तोड़ दिखाते! इसी प्रकार अच्छे-अच्छे आर्यसमाजी और सिक्ख भी अपनी बिरादरी में ही विवाह करते हैं।

उत्तर—वह ठीक है, यदि श्री रबींद्रनाथजी ठाकुर के बाप-दादा और सिक्ख-गुरु आप भी जाति-पाँति तोड़कर अपना और अपनी