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जहांगीर बादशाह सं० १६६३।

मिरजा कामरांके बागसे शहर लाहोर तक दोनों ओर मूलियां खड़ी कीगई। जो बदमाश इस फसादमें शारीक थे उनको सूलियों पर चढ़ाकर विचित्र विचित्र दण्ड दिये गये। जिन जमीन्दारों ने अच्छी सेवा की थी उनको चिनाब और भट नदीके बीच में जमीनें देकर सरदारी और चौधराई बखशी गई। हुसैनबेगके साढ़े सात लाख रुपये तो मीरमुहम्मदबाकीके घरसे निकले और जो उसने अपने पास रखे थे अथवा दूसरी जगह सौंपे थे वह इसके सिवा थे। यह जब मिरजा शाहरुखके साथ बदखशांसे आया था तो केवल एक घोड़ा पास था और फिर बढ़ते बढ़ते इस पदको पहुँचा। इतना धनवान होकर ऐसे ऐसे साहसके काम करने लगा।

परवेजको बुलाना।

बादशाहने लड़ाई के बहुत दिन तक चलने और राजधानी आगरके सूना रहनेके विचारसे शाहजादे परवेजको लिखा था कि कुछ सरदारोंको राणाको लड़ाई पर छोड़कर आसिफखां सहित आगरे चले जाओ। पर विजय होनेके बाद लिखा कि मेरे पास चले आओ।

बादशाह लाहोरमें।

९ बुध (वैसाख सुदी १०) को बादशाहने लाहोरमें प्रवेश किया। शुभचिन्तकोंने गुजरात दक्षिण और बंगालेमें उपद्रव होने से राजधानीको लौट चलनेको प्राथना की। पर बादशाहके मनमें यह बात नहीं आई क्योंकि हाकिम कन्धारको अर्जियोंसे पाया गया था कि ईरानी सीमाके सरदार कन्धार लेनेके, विचारमें हैं। साथही यह समाचार लगा कि हिरात और सीसतां आदिके हाकिमोंने आकर कन्धारके किलेको तीन तरफसे घेर लिया है और शाहबेगखां स्वस्थ चित्तसे उनका सामना कर रहा है।

कन्धारको सहायता।

बादशाहने सिन्ध और ठट्ठे के अगले अधिपति मिरजा जानीके