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जहांगीर बादशाह संवत १६६३।

सुनकर उससे पहले लाहोरमें पहुंच जानेके लिये जल्दीसे कूच कर गया था परन्तु अबदुर्रहीम जो उसी समय लाहोरसे आगया था बहादुरखांके समझाने पर भी खुसरोंसे जा मिला और मलिक अनवररायकी पदवी पाकर लड़ाईके कामोंका अधिकारी हुआ । यदि कमालखां दिल्लीमें और दिलावरखां पानीपतमें खुसरोका रास्ता रोक लेता तो उप्तके साथी बिखर जाते और वह ओ पकड़ लिया जाता।

१७ (वैशाख बदी ३) को बादशाहने वारनाल में पहुंचकर कपटी शैख निजाम थानेसरीको मक्के भिजवा दिया। उसने खुसरोको उसके मनचाहे बरदान देकर सन्तुष्ट किया था।

१९ (वैशाख बदौ ५) को परगने शाहाबादमें डेरा हुआ। बाद- साहने शैख अहमद लाहोरोको जो पुराना सेवक खानाजाद और चेला भी था मीरअदल (न्यायाध्यक्ष) का पद दिया। चेले और भक्त लोग उसके हारा बादशाहको सेवामें उपस्थित होते थे। जिसको हाथ और छातो देना चाहिये उसको निवेदन करके दिलाता(१) था। शिष्य होनेके समय चेलोसे उपदेशके कई वाक्य कहे जाते थे अर्थात--

(१) अपने समयको किसी मतके वैरभावसे दूषित न करें।
(२) सब मतमतान्तरवालोंस मेल रखें।
(३) किसी जीवको अपने हाथसे न मारें।
(४) तारोंको जो परमेश्वर के तेजको धारण करनेवाले हैं यथा

योग्य मानते रहें।

(५) परमात्माको सब कामोंमें व्यापक समझे।
(६) किसी समय और स्थानमें मनको भगवतरूपर्णसे शून्य न.

रखें।


(१) छाती और हाथ देना इलाही मतका कोई नियम था। यह मत अकबर बादशाहने चलाया था और जहांगीर भी उसे मानता ना और चेले करता था।