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जहांगीर बादशाह सं० १६६३।

कि मैं सर्वथा उसके अपराधोंको क्षमा करके उसपर इतनी दया करता कि उसके मन में बालभर भी खटका न रहता। पर पूज्यपिता के स्वर्गवास होने पर उसने कई गुण्डोंके बहकानेसे अनेक कुविचार किये थे और जानता था कि उनकी सूचना मुझको होचुकी है इस लिये मेरी दया मयाका उसको विखास न था। उसकी मा भी मेरी कुमारावस्थाके दिनों में उसके कुलक्षणों तथा अपने भाई माधवसिंहके बुरे बरतावसे तंग आकर विष खाकर मर गई थी। मैं उसके शील और गुणोंको क्या लिखूं। वह पूरी बुद्धिमान थी उसको मुझसे इतनी प्रीति थी कि हजार बेटों और भाइयोंको मेरे एक बालके अपर वारती थी। उसने अनेकबार खुसरोको उपदेश लिख और मुझसे भावभक्ति रखनेको सम्पति दी। परन्तु जब देखा कि कुछ लाभ न हुआ और आगे न जाने क्या हो तो गैरतसे जो राजपूतों में प्रतिगत होती है, मरनेको ठानली। कसी कसी उस को बावलेपनको सिड़ भी होजाती थी और यह पैतृक रोग था। उसके बाप भाई भी एक एक बार पागल होकर चिकित्सासे अच्छे हुए थे। २६ जिलहज्ज सन् १०१३ जेठ बदी १३ सम्बत १६६२ को जब में शिकारको गया हुआ था वह उन्मादमें बहुतसी अफीम खाकर मर गई। मानो वह अपने अभागे बेटेको भविष्य व्यवस्था पहलेही जान गई थी। मेरा यह पहला विवाह तरुणावस्थामें हुआ था। जब उसके खुसरो उत्पन्न होचुका तो मैंने उसे बेगम की पदवी दी थी। वह मेरे साथ भाई और बेटेको कुयात्रता न देख सकती थी इस लिये प्राण देकर उस दुःखसे छूट गई ।

मुझे उससे बड़ा प्रेम था। इस कारण उसके मरने पर मुझपर ऐसे दिन बीते कि जीनेका कुछ मजा न रहा था। ४ दिन तक ३२ प्रहर मैने कुछ खाया पिया नहीं। जब यह हाल मेरे पिता को विदित हुआ तो उन्होंने परम प्रेमसे मुझको शान्तिपत्र भेजा सिरोपाव और पगड़ी जो सिरसे उतारी थी उसी तरहसे बन्धी हुई।