पृष्ठ:जहाँगीरनामा.djvu/२७१

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२१५ संवत् १६७३। चिना निर्वाह नहीं होता। दिनको पंखेको आवश्यकता नहीं जड़ती। कहते हैं कि राजा विक्रमाजीतसे पहिले जयसिंहदेव जामक एक राजा था उसके समय में एक मनुष्य घास काटनेको जङ्गल गया। देवसंयोगसे उसका हंसवा सुनहरा होगया उसने मांडन नाम लुहारको दिखाया। लुहारने पहिलेसे सुन. रखा था कि इसदेश में पारस पत्थर है जिसके छूजानेसे लोहा और तांबा सोना होजाता है। इसलिये वह उस घसियारेके साथ उस जगह गया और उस पारसको ढूंढकर राजाके पास लाया। राजाने उससे बहुतमा सोना पैदा करके किला बनवाया और उस लुहारको प्रार्थनासे बहुतसे पत्यर अहरनले प्राकारको तरशवाकर कोटमें लगाये। अन्तावस्था में संसारको त्यागकर नर्मदाके निकट एक बड़ी सभा की ओर ब्रा- ह्मणोंको बुलाकर धनमाल दिया। पारस पत्थर अपने पुराने पुरो- हितको दिया परन्तु उसने अज्ञतासे तड़ककर नदी में फेंक दिया। पर जर यथार्थ बात जानो तो उमरमर पछताता और ढूंढ़ता रहा पर वह कहीं न मिला। यह कथा लिखो नहीं है जबानी सुनी गई है मेरी बुद्धि इसको खोकार नहीं करती मेरी समझमें यह गप्प जान पड़ती है। मालवेको बड़ी सरकारोंमेंसे एक सरकार मांडोंकी है। इसकी जमा १ करोड ३८ लाखको है। यह बहुत वर्षों तक इस देश के बादशाहोंका राजस्थान रहा है जिनकी बहुतसी इमारतें और निशानियां यहां हैं। उनमें कुछ टूटा फूटा नहीं है। २४ असफदार (फागुन सुदी ८) को मैं पिछले बादशाहोंके स्थान देखनेको सवार हुआ। पहिले सुलतान होशंग गौरीको बनाई हुई 'जामिमसजिद' में गया जिसकी इमारत बहुत बड़ी है। इसको बने हुए १८० वर्ष बीत गये हैं तोभी ऐसा मालूम होता है कि मानो आजही मेमार काम करके गये हैं। फिर मैं खिलजी हाकिमोंको कबरें देखने गया। इस लोक