पृष्ठ:जहाँगीरनामा.djvu/२१

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शाहजादा सलीम।

कुलीचखां पेशवाईको आया। उस वक्त लोगोंने बहुत कहा कि इसकी पकड़ लेनेसे आगरका किला जो खजानोंसे भरा हुआ है सहज ही हाथ आता है। मगर उसने कबूल न करके उसको रुखसत कर दिया और जमनासे उतरकर इलाहाबादका रास्ता लिया। उसकी दादी हौदे में बैठकर उसे इस इरादेसे रोकनेके लिये किलेसे उतरी थी पर वह नाव में बैठकर जल्दौसे चलदिया और वह नाराज होकर लौट आई।

१ सफर सन १००९ (द्वितीय श्रावण सुदी ३ संवत १६५७) को शाह सलीम इलाहाबादके किले में पहुँचा और आगरेसे इधरके अकसर परगने लेकर अपने नौकरीको जागीरमें देदिये। बिहारका सूवा कुतुबुद्दीनखांको दिया, जीनपुरको सरकार लालावेगको और कालपौकी सरकार नसीमबहादुरको दी। घनमूर दीवानने ३० लाख रुपयेका खजाना सूवे बिहारके खालसेमेंसे तहसीलकरके जमा किया था वह भी उससे लेलिया।

जब यह खबरें बादशाहको दक्षिणमें पहुंची तो उसने बड़ी महरबानीसे उसको अपने पास बुलानेका फरमान लिखा। जब अबदुस्समद मुंशीका बेटा शरीफ यह फरमान सलीम पास लेकर आया तो उसने पेशवाई करके फरमानको बड़े अदबसे लिया और जानेका भी इरादा किया। लेकिन फिर किसी खयालसे नहीं गया और शरीफको भी अपने पास रख लिया। वह खुशा- मद दरामदसे इनके दिल में जगह करके वजीर बन गया।

बादशाह इन खबरोंके सुननेसे घरका फसाद मिटाने के लिये दक्षिणकी फतह अधूरी छोड़कर १५ उर्दीबहिश्त सन् १००९ (चैत सुदी २ संवत्:१६५९) को आगरको तरफ लौटा खानखानां और शैख अबुलफजलको वहांका काम पूरा करनेके लिये, छोड़ आया। २० अमरदाद (श्रावण सुदी ३) को आगरेमें पहुंचा।

सन १०१० (संवत् १६५८) में शाहसलीम ३००० सजे हुए