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संवत् १६६७।

अवधि नियत करके प्रतिज्ञापत्र देघुका था और सुलतान परवेजकी सेवामें दूसरे अमीरों सहित उस बड़े काम पर गया था। परन्तु बुरहानपुरमें पहुंचे पीछे समयानुसार रसद और दूसरी आवश्यक बस्तुओंका प्रवन्ध न किया। जब सुलतान परवेज घाटके ऊपर फौजें लेकर गया और सरदारोंकी फूटसे काम बिगड़ा तो अनाज का मिलना ऐसा कठिन हुआ कि एक मन बहुतसे रुपयोंमें नहीं मिलता था। घोड़े ऊंट और दूसरे पशु मर गये। सुलतान परवेजने देशकाल देखकर शत्रुओंसे सन्धि की और लशकरको बुर- हानपुरमें लौटा लाया। इस दुर्घटनाका कारण सब शुभचिन्तकोंने खानखानांका विरोध और कुप्रवन्ध जानकर दरबारमें अर्जियां लिखीं। उन पर विश्वास तो न हुआ परन्तु दिलमें खटका पड़ गया। अन्तमें खानजहांकी अर्जी पहुंची कि यह सब खराबी खानखानांके अन्तरद्रोहसे हुई है। अब इस काम पर या तो उसी को स्वतन्त्रतासे रखना चाहिये या उसको दरगाहमें बुलाकर मुझ कृपापात्रको यह सेवा सौंपनी चाहिये और तीस हजार सवारोंको सहायता भी देनी चाहिये। दो सालमें वह सब बादशाही मुल्क जो गनीमने लेलिया है छुड़ाकर कन्धार(१)का किला सीमाप्रान्तके दूसरे किलों सहित जीत लूंगा। बीजापुरका देश भी बादशाही राज्यमें मिला दूंगा। यह सब काम ऊपर कही अवधिमें न कर डालूं तो दरबारमें मुंह न दिखाऊंगा।

"जब सरदारों में और खानखानांमें यहांतक खिच गई तो मैंने उसका वहां रहना उचित न देखकर खानजहांको सेनापति किया और खानखानांको दरगाहमें बुला लिया। अभी तो यह कारण कृपा नहीं होनेका है आगे जैसा कुछ प्रगट होगा वैसाही बरताव होगा।"

खानखानांके बेटे दाराबखांको हजारी जात और पांच सौ सवारकी नौकरी और गाजीपुरकी सरकार जागीरमें दीगई।


(१) मुसलमानी हिसाबसे शुक्रकी रात।