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जहांगीर बादशाह संवत् १६६५।

अकबर बादशाहका रौजा।

१७ (कार्तिक बदी ४) चन्द्रवारको बादशाह अपने पिताके रौजेका दर्शन करने गया। वह लिखता है--"जो होसकता तो मैं इस मार्ग में मस्तक और पलकोंसे जाता। मेरे पिता तो मेरे वास्ते फतहपुरसे अजमेर तक १२० कोस पैदल ख्वाजे मुईनुद्दीनके दर्शनोंको गये थे। फिर मैं इस मार्गमें सिर और आंखोंसे जाऊ तो क्या बड़ी बात है।"

इस रौजेकी जो इमारत बनी थी वह बादशाहको पसन्द न आई। क्योंकि उसका यह मनोरथ था कि यहां ऐसी इमारत बने जिसके समान पृथिवीके पर्य्यटन करनेवाले कहीं नहीं बता सकें। उक्त इमारतको जब जहांगीर खुसरोकी तलाशने गया था तो उसके पीछेसे सिलावटोंने तीन चार वर्ष में अपनी समझसे बनाया था। बादशाहने उसको गिराकर नये सिरेसे बनानेका हुक्म शिल्प- निपुण मिलावटोंको दिया। बनते बनते एक विशाल भवन, बाग, ऊंची पौल ओर खेत पाषाणोंके मीनारों सहित बन गया जिसकी लागत पन्द्रह लाख रुपये बादशाहको सुनाई गई।

हकीमअलीका हौज।

२३ (कार्तिक बदी १०) रविवार को जहांगीर अकबर बादशाह के समयका बना हकीमअलीका हौज अपने उन मित्रों सहित देखने गया जिन्होंने उसको नहीं देखा था। यह छः गज लम्बा और उतनाही चौड़ा था और उसकी बगलमें एक कमरा बना था जिसमें खूब उजाला रहता था। इस कमरेका रास्ता भी पानी में होकर था लेकिन पानी उस रास्तेसे भीतर नहीं जाने पाता था। इस कमरेमें १२ आदमी बैठ सकते थे।

हकीमने अवसरके अनुसार धन माल बादशाहको नजर किया। बादशाह उसको दो हजारी मनसब देकर राजभवनमें आया।

खानखानांको दक्षिण जाना।

१४ शाबान (अगहन बदी २) रविवारको खानाखानां जड़ाऊ