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वहीं दूसरी तरफ़ वह इंशा और सरशार की उस धर्म-निरपेक्ष भाषा-शिल्प परम्परा की अनदेखी भी करती है, जिसके सम्पर्क से प्रेमचन्द सरस प्रवाही हिन्दुस्तानी, ज़बान और चुटीली मुहावरेदानी वाला शिल्प विकसित कर सके।

प्रेमचन्द से पहले, 19वीं सदी के अन्तिम और बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों से माधवराव सप्रे, मास्टर भगवानदास, रामचंद्र शुक्ल, गिरिजादत्त वाजपेयी और 'बंगमहिला' की भी कहानियाँ आ चुकी थीं। पहल करने के अर्थ में इनका अपना महत्त्व है, होना भी चाहिए-किसी विधा की शुरुआत करना साधारण बात नहीं, किन्तु जब सातत्व का प्रश्न उठता है, तो इनके महत्त्व को ऐतिहासिक-भर मान कर सन्तोष कर लेना पड़ता है।

प्रसाद और प्रेमचन्द: दो शीर्ष

यहीं हमारे सामने दो व्यक्तित्त्व उभरते हैं, पहले दृष्टि पड़ती है जयशंकर 'प्रसाद' पर और उसके तत्काल बाद प्रेमचन्द पर। हिन्दी कहानी में दोनों का अवतरण लगभग साथ-साथ; या कहें आगे-पीछे हुआ। भाषिक कालक्रम में प्रसादजी की ओर पहले दृष्टि जाती है। उनकी पहली कहानी 'ग्राम' 1940 में इन्दु पत्रिका में प्रकाशित हुई और दो वर्ष उपरान्त, 1912 में, उनकी 11 कहानियों का पहला संग्रह छाया भी आ गया। प्रेमचन्द उर्दू में जयशंकर प्रसाद से पहले लिखने लगे थे और उनकी कहानियाँ प्राय: कानपुर से मुंशी दया नारायण निगम द्वारा (सम्पादित-प्रकाशित पत्र ज़माना में प्रकाशित होती थीं। सरस्वती की भाँति, ज़माना उस ज़माने का बहुचर्चित-बहुपठित पत्र था। चूँकि उसका दखल साहित्य के साथ-साथ राजनीति में, विशेषकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में था, लिहाज़ा सरकार की नज़र भी उसमें छपने वाले लेखकों पर रहती थी। यही वजह थी कि प्रेमचन्द का पहला कहानी-संग्रह सोज़े-वतन (उर्दू) 1909 में प्रकाशित हुआ, तो उसे सरकार ने तत्काल ज़ब्त कर लिया। प्रेमचन्द के यहाँ कोई लाग-लपेट न थी। उनकी कहानियों में गुलामी की वेदना और आज़ादी की आकांक्षा की सीधी अभिव्यक्ति थी, जो धीरे-धीरे सामाजिक यथार्थ में रूपान्तरित होती गई। उसी दौरान स्वाधीनता आन्दोलन के बेलौस मुखपत्र के रूप में कानपुर से प्रताप (हिन्दी साप्ताहिक, 1913) का प्रकाशन शुरू हुआ, तो उसके सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने राजनीति के साथ-साथ, आज़ादी की अभिव्यक्ति वाले, प्रखर क्रान्तिकारी तेवर वाले साहित्य को भी प्रताप में प्रमुख स्थान देना शुरू किया। दयानारायण निगम, गणेश शंकर के मित्र थे और गणेश जी फ़ारसी-उर्दू में भी निष्णात होने के कारण ज़माना के उत्साही पाठक। ज़माना के रास्ते वे प्रेमचन्द की कहानियों के पाठक-प्रशंसक बने और उसी सत्र को पकड़ कर उन्होंने प्रेमचन्द पर यह दबाव बनाना शुरू किया कि उन्हें उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी कहानियाँ लिखनी चाहिए। इस तरह प्रेमचन्द की पहली हिन्दी कहानी 'परीक्षा' प्रताप के 1914 के वार्षिकांक में प्रकाशित हुई। आगे भी लगभग 1925 तक प्रेमचन्द की कोई 8-10 कहानियाँ प्रताप परिवार की ही पत्रिका प्रभा में प्रकाशित हुईं। खैर, वह अवान्तर प्रसंग है। मुख्य बात यह है कि हिन्दी कहानी की दो मुख्यधाराओं के प्रवर्तक कथाकार जयशंकर प्रसाद और प्रेमचन्द लगभग साथ-साथ सामने आए और उन्होंने कहानी के आगे उभरने वाले परिदृश्य