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सब लोग उस औरत की ओर बढ़े। जब उसने यह देखा, तब फौरन अपना नकाब उलट दिया। सब लोगों ने सिर झुका दिया और पीछे हट गए, औरंगजेब ने एक बार फिर सिर नीचे कर लिया और कुछ बड़बड़ाकर जोर से बोला-कौन, जहाँनारा, तुम यहाँ कैसे?

जहाँनारा-औरंगजेब! तुम यहाँ कैसे?

औरंगजेब-(पलटकर अपने लड़के की तरफ देखकर) बेटा! मालूम होता है कि बादशाह-बेगम का कुछ दिमाग बिगड़ गया है, नहीं तो इस बेशर्मी के साथ इस जगह पर न आतीं। तुम्हें इनकी हिफाजत करनी चाहिए।

जहाँनारा-और औरंगजेब के दिमाग को क्या हुआ है, जो वह अपने बाप के साथ बेअदबी से पेश आया...

अभी इतना उसके मुँह से निकला ही था कि शहजादे ने फुरती से उसके हाथ से कटार निकाल ली और कहा-मैं अदब के साथ कहता हूँ कि आप महल में चलें, नहीं तो...

जहाँनारा से यह देखकर न रहा गया। रमणी-सुलभ वीर्य और अस्त्र-क्रन्दन और अश्रु का प्रयोग उसने किया और गिड़गिड़ाकर औरंगजेब से बोली-क्यों औरंगजेब! तुमको कुछ भी दया नहीं है?

औरंगजेब ने कहा-दया क्यों नहीं है बादशाह-बेगम! दारा जैसे तुम्हारा भाई था, वैसे ही मैं भी तो भाई ही हूँ, फिर तरफदारी क्यों? जहाँनारा-वह तो बाप का तख्त नहीं लेना चाहता था, उसके हुक्म से सल्लनत का काम चलाता था। औरंगजेब-तो क्या मैं यह काम नहीं कर सकता? अच्छा, बहस की जरूरत नहीं है। बेगम को चाहिए कि वह महल में जाएँ।

जहाँनारा कातर दृष्टि से वृद्ध मूर्च्छित पिता को देखती हुई शाहजादे की बताई राह से जाने लगी।

 

यमुना के किनारे एक महल में शाहजहाँ पलँग पर पड़ा है और जहाँनारा उसके सिरहाने बैठी।

जहाँनारा से औरंगजेब ने पूछा कि वह कहाँ रहना चाहती है, तब उसने केवल अपने वृद्ध और हतभागे पिता के साथ रहना स्वीकार किया और अब वह साधारण दासी के वेश में अपना जीवन अपने अभागे पिता की सेवा में व्यतीत करती है।

वह भड़कदार शाही पेशवाज अब उसके बदन पर नहीं दिखाई पड़ते, केवल सादे वस्त्र ही उसके प्रशान्त मुख की शोभा बढ़ाते हैं। चारों ओर उस शाही महल में एक शान्ति दिखलाई पड़ती है। जहाँनारा ने, जो कुछ उसके पास थे, सब सामान गरीबों को बाँट दिए और अपने निज के बहुमूल्य अलंकार भी उसने पहनने छोड़ दिए। अब वह एक तपस्विनी ऋषिकन्या-सी हो गई! बात-बात पर दासियों पर वह झिड़की उसमें नहीं रही। केवल आवश्यक वस्तुओं से अधिक उसके रहने के स्थान में और कुछ नहीं है।