इतने में एक दूसरा लड़का साईं का गूदड़ खींचकर भागा। गूदड़ लेने के लिए साईं उस लड़के के पीछे दौड़ा। मोहन खड़ा देखता रहा, साईं आँखों से ओझल हो गया।
चौराहे तक दौड़ते-दौड़ते साईं को ठोकर लगी, वह गिर पड़ा। सिर से खून बहने लगा। खिझाने के लिए जो लड़का उसका गूदड़ लेकर भागा था, वह डर से ठिठका रहा। दूसरी ओर से मोहन के पिता ने उसे पकड़ लिया, दूसरे हाथ से साईं को पकड़कर उठाया। नटखट लड़के के सिर पर चपत पड़ने लगी; साईं उठकर खड़ा हो गया।
'मत मारो, मत मारो, चोट लगती होगी!' साईं ने कहा-और लड़के को छुड़ाने लगा। मोहन के पिता ने साईं से पछा-'तब चीथडे के लिए दौडते क्यों थे?'
सिर फटने पर भी जिसको रुलाई नहीं आई थी, वह साईं लड़के को रोते देखकर रोने लगा। उसने कहा-'बाबा, मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इन 'रामरूप' भगवान् को प्रसन्न करता।'
'तो क्या तुम इसीलिए गूदड़ रखते हो?'
'इस चीथड़े को लेकर भागते हैं भगवान् और मैं उनसे लड़कर छीन लेता हूँ; रखता हू फिर उन्हीं से छिनवाने के लिए, उनके मनोविनोद के लिए। सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं पर चीथड़ों पर भगवान् ही दया करते हैं!' इतना कहकर बालक का मुँह पोंछते हुए मित्र के समान गलबाँही डाले हुए साईं चला गया।
मोहन के पिता आश्चर्य से बोले-'गूदड़ साईं! तुम निरे गूदड़ नहीं; गुदड़ी के लाल हो!!'