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'हम लोगों को घोड़े पर चढ़ना नन्दराम ने सिखलाया है। वह बहुत अच्छा सवार है।'-छठे ने कहा। 'और नन्दराम ही तो हम लोगों को गुड़ खिलाता है।'-सातवें ने कहा। 'तुम चोर हो।'-यह कहकर लड़कों ने अपने-अपने हाथ की खीर खा डाली और प्रेमकुमारी हँस पड़ी। सन्ध्या उस पीपल की घनी छाया में पुँजीभूत हो रही थी। पक्षियों का कोलाहल शान्त होने लगा था। प्रेमकुमारी ने सब लड़कों से घर चलने के लिए कहा, अमीर ने भी नवागन्तुक से कहा-'तुझे भूख लगी हो, तो हम लोगों के साथ चल।' किन्तु वह तो अपने हृदय के विष से छटपटा रहा था, जिसके लिए वह हिजरत करके भारत से चला आया था, उस धर्म का मुसलमान। देश में भी यह अपमान! वह उदास मुँह से उसी अंधकार में कट्टर दुर्दान्त वजीरियों के गाँव की ओर चल पड़ा। नन्दराम पूरा साढ़े छ: फुट का बलिष्ठ युवक था। उसके मस्तक में केसर का टीका न लगा रहे तो कुलाह और सलवार में वह सोलहों आने पठान ही अँचता। छोटी-छोटी भूरी मूंछे खड़ी रहती थीं। उसके हाथ में कोड़ा रहना आवश्यक था। उसके मुख पर संसार की प्रसन्न आकांक्षा हँसी बनकर खेला करती। प्रेमकुमारी उसके हृदय की प्रशान्त नीलिमा में उज्जल बृहस्पति ग्रह की तरह झिलमिलाया करती थी। आज वह बड़ी प्रसन्नता में अपने घर की ओर लौट रहा था। सन्तसिंह के घोड़े अच्छे दामों में बिके थे। उसे पुरस्कार भी अच्छा मिला था। वह स्वयं अच्छा घुड़सवार था। उसने अपना घोड़ा भी अधिक मूल्य पाकर बेच दिया था। रुपये पास में थे। वह एक ऊँचे ऊँट पर बैठा हुआ चला जा रहा था। उसके साथी लोग बीच की मण्डी में रुक गये थे; किन्तु काम हो जाने पर, उसे प्रेमकुमारी को देखने की धुन सवार थी। ऊपर सूर्य की किरणें झिलमिला रही थीं। बीहड़ पहाड़ी पथ था। कोसों तक कोई गाँव नहीं था। उस निर्जनता में वह प्रसन्न होकर गाता आ रहा था। 'वह पथिक कैसे रुकेगा, जिसके घर के किवाड़ खुले हैं और जिसकी प्रेममयी युवती स्त्री अपनी काली आँखों से पति की प्रतीक्षा कर रही है।' 'बादल बरसते हैं, बरसने दो। आँधी पथ में बाधा डालती है। वह उड़ जाएगी। धूप पसीना बहाकर उसे शीतल कर देगी, वह तो घर की ओर आ रहा है। उन कोमल भुजलताओं का स्निग्ध आलिंगन और निर्मल दुलार प्यासे को निर्झर और बर्फीली रातों की गर्मी है।' 'पथिक! तू चल-चल, देख, तेरी प्रियतमा की सहज नशीली आँखें तेरी प्रतीक्षा में जागती हुईं अधिक लाल हो गयी हैं। उनमें आँसू की बूंद न आने पावे।' पहाड़ी प्रान्त को कल्पित करता हुआ बन्दूक का शब्द प्रतिध्वनित हुआ। नन्दराम का सिर घम पडा। गोली सर्र से कान के पास से निकल गयी। एक बार उसके मुंह से निकल पडा -'वजीरी!' वह झुक गया। गोलियाँ चल चुकी थीं। सब खाली गयीं। नन्दराम ने सिर उठाकर देखा, पश्चिम की पहाड़ी में झाड़ों के भीतर दो-तीन सिर दिखाई पड़े। बन्दूक