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उस मचान पर बालक और बालिकाएँ बैठी हुईं कोलाहल मचा रही थीं। जल में भीगते हुए भी मोहनलाल खेत के समीप खड़े होकर उनके आनन्द-कलरव को श्रवण करने लगे।

भ्रान्त होने से उन्हें बहुत समय व्यतीत हो गया। रात्रि अधिक बीत गई। कहाँ ठहरें? इसी विचार में खड़े रहे, बूंदें कम हो गईं। इतने में एक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की आड़ में दीप लिए हुए उसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी।

 

बालिका की अवस्था 15 वर्ष की थी। आलोक से उसका अंग अँधकार घन में विद्युल्लेखा की तरह चमक रहा था। यद्यपि दरिद्रता ने उसे मलिन कर रखा है, पर ईश्वरीय सुषमा उसके कोमल अंग पर अपना निवास किए हुए है। मोहनलाल ने घोड़ा बढ़ाकर उससे कुछ पूछना चाहा, पर संकुचित होकर ठिठक गए, परन्तु पूछने के अतिरिक्त दूसरा उपाय ही नहीं था। अस्तु, रूखेपन के साथ पूछा-कुसुमपुर का रास्ता किधर है?

बालिका इस भव्य मूर्ति को देखकर डरी, पर साहस के साथ बोली-मैं नहीं जानती। ऐसे सरल नेत्र-संचालन से इंगित करके उसने ये शब्द कहे कि युवक को क्रोध के स्थान पर हंसी आ गई और कहने लगा तो जो जानता हो, मुझे बतलाओ, मैं उससे पूछ लूँगा।

बालिका–हमारी माता जानती होंगी। मोहनलाल-इस समय तुम कहाँ जाती हो?

बालिका–(मचान की ओर दिखाकर) वहाँ जो कई लड़के हैं उनमें से एक हमारा भाई है, उसी को खिलाने जाती हूँ।

मोहनलाल-बालक इतनी रात को खेत में क्यों बैठा है? बालिका–वह रात-भर और लड़कों के साथ खेत ही में रहता है। मोहनलाल-तुम्हारी माँ कहाँ है?

बालिका–चलिए, मैं लिवा चलती हूँ।

इतना कहकर बालिका अपने भाई के पास गई और उसको खिलाकर तथा उसके पास बैठे हुए बालकों को भी कुछ देकर उसी क्षुद्र-कुटीराभिमुख गमन करने लगी। मोहनलाल उस सरला बालिका के पीछे चले।

 

उस क्षुद्र कुटीर में पहुँचने पर एक स्त्री मोहनलाल को दिखाई पड़ी, जिसकी अंगप्रभा स्वर्णतुल्य थी, तेजोमय मुख-मण्डल तथा ईषत् उन्नत अधर अभिमान से भरे हुए थे, अवस्था उसकी 50 वर्ष से अधिक थी। मोहनलाल की आन्तरिक अवस्था, जो ग्राम्य जीवन देखने से कुछ बदल चुकी थी, उस सरल-गम्भीर-तेजोमय मूर्ति को देख और भी सरल विनययुक्त हो गई। उसने झुककर प्रणाम किया। स्त्री ने आशीर्वाद दिया और पूछा-बेटा! कहाँ से आते हो?