अर्जुनने इसीके लिये कहा है।
"यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोक वीराः
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।
भगवानके अनेक मुखोंमें हम वैसे ही घुसते हैं जैसे नदियां समुद्र में प्रवेश करती हैं। बनोंमें बहती, पर्वतोपर टकराती, गह्वरों में गरगराती, झरनोंमें झरती सरिताओंका यही अंतिम उद्देश्य है कि वे समुद्र में मिल जाय, मिलकर एक हो जायं। मरमर कर, एक एक बंद जिसके लिये जोड़ी थी उसकी थाती उसको सौंप दी, सरका बोझ हलका हो गया, आप खुद भी हलकी होकर हवाकी झोकोंपर इधर उधर लहराने लगी।
हम भी रोज मरते, पटकते और काम करते रहते हैं जिसमें मालिक खुश हो और प्रसन्न होकर हमको अपने दरबारमें बुला ले। मालिक दयावान है, हमको अपनी शरणमें, अपने चरणों में अवश्य स्थान देगा! लेकिन हमको देख लेना चाहिये कि कहीं सुस्तीसे काम अधूरा न छूट जाय, नहीं तो डांट पड़ना अलग रहा, वही काम करनेके लिये हम बारबार लौटाये जायेंगे।
लेकिन जो कर्मवीर हैं, जिनने अपना सारा जीवन काम करते करते बिताया है, काम भी ऐसे जिनसे संसारका उपकार, दीनोंका उद्धार, सत्य और सदाचारका प्रचार, विद्याका विस्तार और मातृभूमि की उन्नति हुई है, उनके लिये मृत्युका