पाठशाला भी बड़ी हीनावस्थामें है, तब तक कितने ही नवयुवक हिन्दू-युनिवर्सिटीका चंदा मांगनेके लिये पंहुच गये, इधर युद्धऋणमें जी खोलकर देना अपना सबसे प्रथम कर्तव्य है। रुपये पचास और झगड़े इतने। कभी कभी सोचते हैं, कि कहांसे जान लेनेवाली नाम मात्रकी उच्च शिक्षाके पचड़ेमें पड़े। अगर अपने खेतोंको मिहनत करके जोतते तो क्या वे कुछ फल नहीं देते। परती जमीनमें अगर छोटा मोटा बाग लगा देते तो उसीमें कितना मिलता, गांवमें अगर किरानेकी दूकान खोलदेते तो भी खासी आमदनी होती, तीन चार गाय भैंस पाल लेते तो फिर दूध दही भी खाने को मिलता और नकद रुपये भी मिलते। अगर नौकरी ही करनी थो तो इस तरह अंगरेजी पढ़ कर हरलोक परलोक बिगाड़नेसे क्या काम निकला? मुदर्रिसी कर ली होती तो कितना आनंद होता! हाथमें छड़ी लेकर कुर्सीपर डट जाते। अगर मुमकिन होता तो छोटी सी घड़ी ताख पर टिकटिकाती रहती। अब सरकारी स्कूलोंमें तनख्वाह भी माहवारसे कम नहीं है, अगर अपने गांवका मदरसा मिल जाता तो फिर कहना ही क्या था। अगर दूर भी फेंके जायंगे तब भी ईश्वर ने शरीरमें ताकत दी है। हाथमें जूते लेकर दिनमें २० कोस चला जाना कठिन नहीं हैं। अगर मदरसेके साथ डाकखाना या मवेशीखाना मिल गया तो फिर पूछना ही क्या है। अगर हिसाब कमजोर होनेकी वजहसे मिडिल न भी पास कर सकते तोभी वैक्सीनेटरी कहां जाती। मेरे ख्यालमें इसके मुका
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जमसेदजी नसरवानजी ताता-