मनसा―यही कि तेरे पिता को आग में जलान के लिये वे ढूँढ़ते फिरते हैं, और इस नाग जाति को धूल में मिला देना चाहते हैं।
आस्तीक―क्यो आप अपने को मानव जाति से भिन्न मानती हैं? क्या यह आप लोगों के कल्पित गौरव का दम्भ नहीं है?
मनसा―किन्तु वत्से, क्या यह आर्यों का दम्भ नही है? क्या वे तुम्हारे इस ऊँचे विचार को नहीं समझते?
आस्तीक―माँ, तुम्हारा कथन ठीक है! किन्तु जब एक दूसरे प्रकार से नाग जाति के भाग्य का निपटारा होने को है, तब इस युद्ध विग्रह से क्या लाभ? आर्यों का अश्व आवेगा, घूमकर चला जायगा। हम लोगों की स्वाधीनता पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। जब हम युद्ध करके उनके सुव्यवस्थित राष्ट्र का नाश नहीं कर सकते, तब उनसे मित्रता रखने में क्या बुराई है? यह तो कल्पित मानापमान के रूप मे युद्ध-लिप्सा ही दिखाई देती है।
तक्षक―(स्वगत) क्यों न हो, आर्य रक्त का कुछ तो प्रभाव होना ही चाहिए।
मनसा―सुना था, मेरी सन्तान से नाग जाति का कुछ उप- कार होगा। इसीलिये मैंने तुझे उत्पन्न किया था। यदि तू तलवार लेकर इस जातीय युद्ध में नहीं सम्मिलित होता, तो आज से तू मेरा त्याज्य पुत्र है।