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जनमेजय का नाग-यज्ञ

का उत्थान किया करती है। इसी का नाम है दम्भ का दमन। स्वयं प्रकृति को नियामिका शक्ति कृत्रिम स्वार्थ सिद्धि मे रुकावट उत्पन्न करती है। ऐसे कार्य कोई जान बूझ कर नहीं करता, और न उनका प्रत्यक्ष मे कोई बड़ा कारण दिखाई पड़ता है। उस उलट- फेर को शान्त और विचार शील महापुरुष हो समझते हैं, पर उसे रोकना उनके वश की भी बात नहीं है; क्योकि उसमे विश्व भर के हित का रहस्य है।

जनमेजय―तब तो मनुष्य का कोई दोष नहीं; वह निष्पाप है!

व्यास―(हँसकर) किसो एक तत्त्व का कोई क्षुद्र अंश लेकर विवेचना करने से इसका निपटारा नहीं हो सकता। पौरव, स्मरण रक्खो, पाप का फल दुःख नही, किन्तु एक दूसरा पाप है। जिन कारणो से भारत युद्ध हुआ था, वे कारण या पाप बहुत दिनो से सञ्चित हो रहे थे। वह व्यक्तिगत दुष्कर्म नही था। जैसे स्वच्छ प्रवाह मे कूड़े का थोड़ा सा अंंश रुक कर बहुत सा कूड़ा एकत्र कर लेता है, वैसे ही कभी कभी कुत्सित वासना भी इस अनादि प्रवाह में अपना बल सङ्कलित कर लेती है। फिर जब उस समूह का ध्वंस होता है, तब प्रवाह मे उसकी एक लड़ी बँध जाती है। और फिर आगे चलकर वह कहीं न कहीं ऐसा ही प्रपञ्च रचा करती है।

जनमेजय―उनका कहीं अवसान भी है?

व्यास―प्रशान्त महासागर ब्रह्मनिधि में।

जनमेजय―आर्य, कुछ मेरा भी भविष्य कहिए।