से जाऊँगा! दामिनी! अब भी मैं तुझे क्षमा करने के लिये प्रस्तुत हूँ; क्योकि मैं जानता हूँ कि बड़े बड़े विद्वान् भी प्रवृत्तियों के दास होते हैं, फिर तू तो एक साधारण स्त्री ठहरी।
त्रिविक्रम―पर अब वह मिलती कहाँ है?
वेद―जाने उसका भाग्य! चलो, यज्ञशाला को ओर चलें। परन्तु त्रिविक्रम! मुझे भय लग रहा है कि कहीं इस यज्ञ में कोई भयानक काण्ड संघटित न हो!
त्रिविक्रम―तब तो कुटोर को ओर लौटना हो ठोक होगा।
वेद―कौन? दामिनी!
दामिनी―हाँ आर्य्यपुत्र। अपराधिनी को क्षमा कीजिए।
वेद―( निश्वास लेकर ) क्षमा! दामिनी, हृदय से पूछो, वह क्षमा कर सकेगा। परन्तु―।
दामिनी―वह मेरा भ्रम था। परन्तु हृदय से नहीं, आप अपनी स्वाभाविक कृपा से पूछ देखिए। वही मुझे क्षमा कर देगी। मेरा और कौन है!
माणवक―आर्य! क्षमा से बढ़कर और किसी बात मे पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। मैं भलीभाँति जानता हूँ, मानसिक दुर्बलताओ के रहते हुए भी यह स्त्री आचारतः पवित्र और शुद्ध है।
वेद―दामिनी, उजड़ा हुआ गुरुकुल देखकर क्या करोगी!