पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/८१

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आठवाँ दृश्य
स्थान—पथ
[ माणवक और दामिनी ]

माणवक―अब तुम निरापद स्थान में पहुँँच गई हो, मैं जाता हूँ।

दामिनो―न न न! कही फिर अश्वसेन न आ जाय। मुझे थोड़ी दर पहुँँचा दो। तुम्हारी बात न मान कर मैंने बड़ा दुःख उठाया। परन्तु मेरा अपराध भूलकर थोड़ा सा उपकार और कर दो।

माणवक―मैं जनसंसग से दूर रहना चाहता हूँ। मुझे क्षमा करो!

दामिनी―मैं पथ भ्रष्ट हो जाऊँगी!

माणवक―सो तो हो चुकीं। अब भाग्य मे होगा, तो घूम फिर कर फिर अपने स्थान पर पहुँँच ही जाओगी।

[ वेद और त्रिविक्रम का प्रवेश ]
 

वेद―वत्स त्रिविक्रम! आज और कितना चलना होगा?

त्रिविक्रम―गुरुदेव, किधर चलना है? जनमेजय के यज्ञ की ओर अथवा गुरुपत्नी को ढूँढ़ने?

वेद―ढूँढ़ तो चुके त्रिविक्रम! वह उल्का सी रमणी अनन्त पथ मे भ्रमण करती होगी। उसके पीछे किस छाया पथ