सोमश्रवा―आर्य, ऐसा ही होगा।
च्यवन―वत्स! ऐसा काम करना जिसमे दुरात्मा काश्यप ने ब्राह्मणो की जो विडम्बना की है, वह सब धुल जाय और सब पर ब्राह्मणो को सच्ची महत्ता प्रकट हो जाय! अध्यात्म गुरु जब तक अपना सच्चा स्वरूप नहीं दिखलावेंगे, तब तक दूसरे भला कैसे धर्माचरण करेंगे! त्याग का महत्व, जो हम ब्राह्मणो का गौरव है, सदैव स्मरण रहे। धर्म कभी धन के लिये न आचरित हो, वह श्रेय के लिये हो, प्रकृति के कल्याण के लिये हो, और धर्म के लिये हो। यही धर्म हम तपोधनों का परम धन है। उसकी पवित्रता शरत्कालीन जल स्रोत के सदृश, उसकी उज्ज्वलता शारदीय गगन के नक्षत्रालोक से भी कुछ बढ़कर और शीतल हो।
सोमश्रवा―आर्य! ऐसा ही होगा। मैंने राजा से प्रतिज्ञा की है कि यदि कोई धर्म विरुद्ध कार्य होगा, तो मैं पुरोहिती छोड़ दूँँगा। अब मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं पिताजी को क्या उत्तर―।
च्यवन―( हॅस कर ) शीला तुम्हारे साथ जायगी। उसे कोई कष्ट नहीं होगा। वह दिन मे दो बार वहाँ आ जा सकती है।
मणिमाला―पिता जी! तो फिर मै सबको एकत्र करूँ? सखियों इसकी बिदाई करेंगी।
च्यवन―हाँ पुत्रियो, तुम अपने मङ्गलाचार कर लो!