शीला―किन्तु आर्यपुत्र! हम आरण्यकों को नगर मे रहना कैसे अच्छा लगेगा?
सोमश्रवा―देवि, मुझे तो राजा को पुरोहिती नहीं रुचती। इन्हीं थोड़े दिनो मे इन्द्रप्रस्थ से जी घबरा उठा है। मुझे तो राजा के साथ ही तक्षशिला जाना पड़ता, किन्तु इस प्रस्तुत युद्ध मे कल्याण के लिये कई आथर्वण प्रयोग करने हैं, इसीसे मैं यहाँ आरण्यक मण्डल में चला आया हूँ। राजा का अग्निहोत्र भी मेरे साथ है। अब कुछ दिनों तक यही रहूँगा। तुम भी वहीं चलो। सब लोग मिलते जुलते रहेगे।
शीला―जब यही समीप में रहना है, तब तो ठोक ही है। किसीसे विच्छेद भी न होगा।
मणिमाला―शीला! बहन, अरे तू इतना लजाती क्यो है! यह लो, यह तो बोलती भी नहीं! तेरा वह परिहास रसिक स्वभाव, वह विनोद पूर्ण व्यवहार, क्या सब भूल गया?
च्यवन―आयुष्मन् सोमश्रवा! तुमने राज पुरोहित का पद स्वीकार कर लिया, यह बहुत अच्छा किया।
सोमश्रवा―आर्य! यह सब आप लोगो की कृपा है।
च्यवन―वत्स, राज सम्पर्क के अवगुण हम ब्राह्मणों को, आरण्यकों को, न सीखने चाहिए; दया, उदारता, शील, आर्जव और सत्य का सदैव अनुसरण करना चाहिए।