पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/७५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०
जनमेजय का नाग-यज्ञ


तुम्हारी अप्रत्यक्ष मूर्ति के चरणो पर अभिमानिनी सरमा लोट रही है। देवता! तुम सङ्कट मे हो, यह सुनकर भला मैं कैसे रह सकती हूँ! मेरा अश्रु जल समुद्र बनकर तुम्हारे और शत्रु के बीच गर्जन करेगा; मेरी शुभ कामना तुम्हारा वर्म बनकर तुम्हें सुरक्षित रक्खेगी! तुम्हारे लिये अपमानिता सरमा राजकुल में दासी बनेगी।

[ जाती है ]
 






________