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दूसरा अङ्क―पाँचवाँ दृश्य

ती० ब्राह्मण―तुम इतने घृणित हो―

काश्यप―अच्छा बाबा! हम सब कुछ है, तुम लोग कुछ नही हो। यदि दक्षिणा मिलता, तब तो चन्दन चर्चित कलेवर लेकर सब लोग मलय मन्थर गति से घर जाते और मेरी ही बड़ाई करते! किन्तु अब तो व्यवस्था ही उलट गई।

सब ब्राह्मण―तुमने सब को राजनिन्दा सुनने के पाप का भागी बनाया।

काश्यप―और फिर भी कुछ हाथ न आया! चलो!

[ सब जाते हैं ]
 
[ सरमा गाती हुई आती है ]

वरस पडे अश्रु जल, हमारा मान प्रवासी हृदय हुआ।
भरी धमनियाँ सरिताओं सी, रोप इन्द्रधनु उदय हुआ॥

लौट न आया निर्दय ऐसा, रूठ रहा कुछ बातों पर।
था परिहास एक दो क्षण का, वह रोने का विषय हुआ॥

अब पुकारता स्वयं खडा उस पान, वीच में खाई है।
आऊँ क्या मैं भला बतादो, क्या आने का समय हुआ॥

जीवन भर रोऊँ, क्या चिन्ता! वैसी हँसी न फिर करना।

कहकर आने लगा इधर फिर, क्यों अब ऐसा सदय हुआ॥

वरस पड़े०―

नाथ! अभिमान से मैं अलग हूँ, किन्तु स्नेह से अभिन्न हूँ। रमणी का अनुराग कोमल होने पर भी बड़ा दृढ़ होता है। वह सहज मे छिन्न नहीं होता। जब वह एक बार किसी पर मरती हैं, तब उसी के पीछे मिटती भी हैं। प्राणेश्वर! इस निर्जन वन में