ही अवस्था पर विचार कर देखो। जो राजतन्त्र न्याय का ऐसा उदाहरण दिखा सकता है, क्या वह बदलने योग्य नहीं है।
सरमा―फिर भी एक दस्यु दल को उसका स्थानापन्न बनाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। धर्म का ढोग करके, एक निदोप आर्य सम्राट को अपने चङ्गुल मे फँसा कर, उसके पतित होने की व्यवस्था देना, जिससे वह राज्यच्युत कर दिया जाय, क्या उचित है? सो भी यही तक नहीं, उसके कुल भर की आर्य पद से इस प्रकार वञ्चित कर देने को कुमन्त्रणा कहाँ तक अच्छी होगी।
काश्यप―स्वेच्छाचारिणी! जो अनार्यों की दासी हो चुकी है, जो अपनी मर्यादा बिलकुल खो चुकी है, क्या वह भी ब्राह्मणों के कर्तव्य की आलोचना करेगी?
सरमा―तुमने राजसभा मे मुझे अपमानित किया था? आज फिर वही बात ब्राह्मण! सहन की भी सीमा होती है। उस आत्म सम्मान की प्रवृत्ति को तुम्हारे बनाए हुए द्विज महत्ता के बन्धन नहीं रोक सकेंगे। मै यादवी हूँ, अपमान का बदला षड्यन्त्र करके नहीं लूँँगी। यदि मेरे पुत्र को बाहुओ मे बल होगा, तो वह स्वय प्रतिशोध ले लेगा। मै तो अब जाती हूँ, परन्तु मेरी बात स्मरण रखना।
काश्यप―नागराज, इसे अभी मार डालो! नहीं तो यह सारा भंडा फोड़ देगी!