पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/६९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४
जनमेजय का नाग-यज्ञ

मणिमाला―अच्छा भाई! पिता जी को अब इस बात की सूचना नहीं होगी। किन्तु तुम! हाय! मेरा हृदय काँप उठता है। भाई, पुरुषोचित काम करो। अत्याचार से पीड़ितों को रक्षा करने मे पौरुष का उपयोग करो। तुन वीरपुत्र हो।

अश्वसेन―अत्र और अधिक लज्जित न करो। मैं सबसे क्षमा प्रार्थी हूँ। लो, मैं अभी रण प्राङ्गण को चला।

[ सवेग प्रस्थान ]
 

दामिनी―अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहती। मणि, मैं जाऊँगी।

मणिमाला―अच्छा; (कुछ ठहर कर) दो चार दिन में चली जाना। अभी तो मैं आई हूँ।

[ हाथ पकड कर ले जाती है ]
 



_____