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दूसरा अङ्क―तीसरा दृश्य
फिर चाहे जो कुछ हो। आलस्य अब मुझे अकर्मण्य नही बना सकेगा। प्रिये, बहुत प्यास लगी है।
वपुष्टमा―कोई है? प्रमदा!
प्रमदा―(प्रवेश करक) महादेवो की जय हो। क्या आज्ञा है? वपुष्टमा रत्नावली से कहो द्राक्षासव ले आवे।
[ प्रस्थान ]
वपुष्टमा―आर्यपुत्र! आज रत्नावली का गान सुनिए।
जनमेजय―मेरी भी इच्छा थी कि आज आनन्द विनोद करूँ। फिर कल से तो नाग दमन और अश्वमेध होगा ही।
वपुष्टमा―क्या, नाग दमन और अश्वमेध? जब देखो, तब युद्ध विग्रह। एक घड़ी विश्राम नहीं। पुरुष भी कैसे कठोर होते हैं!
जनमेजय―यही उनकी भाग्यलिपि है, अदृष्ट है। क्या वे विलास, प्रमोद और ललित कला के सुकुमार अङ्क में समय नहीं व्यतीत करना चाहते? किन्तु क्या करें!
वपुष्टमा―और स्त्रियो के भाग्य में है कि अपनी अकर्मण्यता पर व्यग्य सुना करें।
[ रोष करती है ]
जनमेजय―प्रिये! ऐसा स्वर क्यो? स्नेह में इतनी रुखाई!
[ स्नेहपूर्वक हाथ पकडता है ]