मणिमाला―आओ सखि! मैं तो बड़ी देर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। तुमको तो गाने से छुट्टी नहीं मिलती। मार्ग चलते हुए भी गाती रहती हो।
शीला―सखि! अपना वर ढूँढती फिरती हूँ।
मणिमाला―अरे तुम्हारा तो व्याह हो चुका है न?
शीला―क्या तुम पागल हो गई हो! अभी तो बात पक्की हुई थी।
मणिमाला―हॉ, हाँ, सखि! मैं भूल गई थी।
शीला―और जब किसी से तुम्हारा ब्याह हो जाय, तब भी कभी कभी इसी तरह पति को भूल जाना; दूसरा वर ढूँँढने लगना।
मणि०―चलो! तुम भी बड़ी ठठोल हो। अरे क्या सोम- श्रवा तुझे मनोनीत नही हैं?
शीला―अब तो नही हैं।
मणिमाला―क्यो, क्या इतने ही दिनो मे बदल गए?
शीला―नहीं सखि। एक बड़ी भयानक बात हो गई है। भावी पति सोमश्रवा मुझ से ब्याह कर लेने पर पौरव सम्राट् जनमेजय के राज पुरोहित बनेंगे।
मणिमाला―तब तो तुम्हे और भी प्रसन्न होना चाहिए।
शीला―जो अपने को मनुष्यों से कुछ अधिक समझते हैं, उनसे मै बहुत डरती हूँ। राज सम्पर्क हो जाने से इसी हड्डी मांस