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पाँचवाँ दृश्य
स्थान―कानन
[ तक्षक ]
तक्षक―मै अपने शत्रुओ को सुखासन पर बैठे, साम्राज्य का खेल खेलते, देख रहा हूँ। और स्वयं दस्युओं के समान अपनी ही धरणी पर पैर रखते हुए भी काँप रहा हूँ। प्रलय की ज्वाला इस छाती मे धधक उठती है! प्रतिहिंसे! तू बलि चाहती है, तो, ले, मैं दूँँगा! छल, प्रवञ्चना, कपट, अत्याचार, सब तेरे सहायक होगे। हाहाकार, क्रन्दन और पीड़ा तेरी सहेलियाँ बनेंगी। रक्त- रञ्जित हाथों से तेरा अभिषेक होगा। शून्य गगन, शव-गन्ध-पूरित धूम से भरकर तेरी धूपदानी बनेगा। ठहरो देवी, ठहरो!
[ खड्ग निकालता है ]
[ वासुकि का प्रवेश ]
वासुकि―क्यो नागनाथ! क्या हो रहा है? किस पर क्रोध है?
तक्षक―प्रिय वासुकि, तुम आ गए? कहो, वह काश्यप ब्राह्मण आवेगा कि नहीं?
वासुकि―प्रभो! वह तो गहरी दक्षिणा पाकर फिर राजकुल से सन्तुष्ट हो गया है। किन्तु उसे एक बात का बड़ा खेद है। वह रानी के मणिकुण्डल दूसरे ब्राह्मण को मिलना सहन नहीं कर