पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/३८

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पहला अङ्क—चौथा दृश्य

सरमा―मैं जानती हूँ, मैं अनुभव कर रही हूँ। उस अपमान के विष का घूँँट मेरे गले में अभी तक तीव्र वेदना उत्पन्न करता हुआ धीरे धीरे उलट रहा है। पर माणवक! मेरे प्यारे बच्चे! पहले तो तूने मातृ स्नेह के वश होकर अपने पिता के वैभव का तिरस्कार किया। पर अब क्या मनसा से सहायता माँग कर मुझे उसके सामने फिर लज्जित करना चाहता है? यादवी प्राण के लिये नहीं डरती। ( छुरी फेंककर ) ले, पहले मेरा अन्त कर ले; फिर तू जहाँ चाहे, चला जा। ( रोकर ) हाय! वत्स तुझे नहीं मालूम कि तेरे ही अभिमान पर मैंने राज वैभव ठुकरा दिया था। बेटा―!

माणवक―माँ, मत रोओ, क्षमा करो, मेरी भूल थी। मैं पुत्र हूँ। अपने अपमान के प्रतिशोध के लिये तुम्हारा हृदय दुःखी नहीं करना चाहता। ( पैरों पर गिरता है ) माँ, मैं जाता हूँ। भाग्य में होगा, तो फिर तुम्हारे दर्शन करूँगा।

[ प्रस्थान ]
 

सरमा―ठहर जा; माणवक, ठहर जा। मेरी बात सुन ले। रूठ मत, मैं सब करूँगी। जो तू कहेगा, वही करूँगी। सुन ले! नहीं आया! चला गया! हाय रे जननी का हृदय! मैं सब ओर से गई। अन्धकारपूर्ण, शून्य हृदय! इसमें सैकड़ो बिजलियो से भी प्रकाश न होगा।

माणवक―माणवक!

[ उसके पीछे जाती है ]
 
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