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पहला अङ्क―तीसरा दृश्य

कर्तव्य था कि प्रजा हितैषी विजयी राजा का ऐन्द्रमहाभिषेक करें। और दक्षिणा के अधिकारी तो आपके पुरोहित काश्यप हैं हो।

काश्यप―यह बात तो उसने पद्धति के अनुसार ही की है।

वपुष्टमा―(हँसकर) किन्तु आर्य काश्यप, आपको तो उन्हे सन्तुष्ट करना चाहिए था। आप ही कुछ दे देते।

काश्यप―सम्राज्ञी, अभी आपसे तो कुछ दक्षिणा मिली ही नहीं। वह मिलने पर फिर तुर कावषेय को देने का विचार करूँगा!

वपुष्टमा―तब भी विचार!

काश्यप―ओर क्या! हम लोग बिना विचार किए कोई काम करते हैं? यदि पद्धति वैसी आज्ञा न दे, यदि वह विहित न हो! तो फिर पाप का भागी कौन होगा? दूना प्रायश्चित कौन करेगा?

मन्त्री―( हँसते हुए ) यथार्थ है।

काश्यप―हाँ, सूत्रों को यथावत् पद्धति के अनुसार! वस!

वपुष्टमा―आर्यपुत्र, अन्तःपुर की सहेलियाँ बड़ा आग्रह करती हैं। वे कहती है, आज तो बड़े आन्द का दिवस है, हम लोग राजाधिराज को अपना कौशल दिखा कर पुरस्कार लेगी।

जनमेजय―किन्तु देवि, यह परिषद्गृह है।

काश्यप―नहीं सम्राट्, यह भी उसी का अङ्ग है। अभिषेक के बाद नाच-रङ्ग होना पद्धति के अनुसार ही है; विधि विहित है।

जनमेजय―देवि, अब रङ्ग-मन्दिर में चल कर नृत्य देखूँँगा।

यहाँ बैठे विलम्ब भी हुआ।