काश्यप―तुम लोगे? अच्छे आए! अरे अभी जो अशुद्ध कृत्य तुमने कराया होगा, उसका प्रायश्चित्त कराना पड़ेगा। उसमें जो व्यय होगा वह कौन देगा? बोलो, ऐं!
तुर―तो फिर मै यों ही चला जाऊँ?
काश्यप―तो क्या यही बैठे रहोगे? अरे अभी सम्राट् युवक हैं; तुम लोगो को बातों में आ जाते हैं। किन्तु फिर भी..
तुर―तो फिर मैं जाता हूँ। आप दोनो, यजमान और पुरो- हित, मिल बरते।
काश्यप―राजाधिराज, तुर कावषेय जाना चाहते है; इन्हे प्रणाम करो।
वपुष्टमा―आर्य काश्यप को मैं प्रणाम करती हूँ।
काश्यप―कल्याण हो, सौभाग्य बढ़े, वीर प्रसविनी हो।
जनमेजय―देवि, तुम्हारे आ जाने से यह राजसभा द्विगु- णित शोभायुक्त हुई। आर्य तुर ने दक्षिणा नही ली; वे यो ही चले गए।
वपुष्टमा―क्यो आर्यपुत्र, आपने ऐसा क्यो होने दिया?
मन्त्री―सम्राज्ञो, वे तपस्वी हैं, महात्मा हैं, त्यागी है। उन्होने कहा―हम राष्ट्र की शीतल छाया मे रहते हैं, इसलिये हमारा