मिला? नियन्त्रित राष्ट्र के नियमन का अधिकार ब्राह्मणो को है। इन बातो को तुम क्या जानो! वह तो जिसको पैत्रिक सम्पत्ति हो, वही जानेगा। तुम क्या जानो!
तुर―द्विजवर्य! जब राजा अपनी प्रजा का, अपने राष्ट्र का वैभव बढ़ा रहा हो, तब उसका आदर करना भी उसकी प्रजा का धर्म है।
काश्यप―और अपने अग्नि-सेवक, पुरोहित, पाप के पञ्च- मांश के भोक्ता, गुरुसमान ब्राह्मण की अवज्ञा का प्रायश्चित कौन करेगा? तुम? राष्ट्र का भला हुआ, यह एक स्वतन्त्र धर्म है; और ब्राह्मण को अवज्ञा एक भिन्न पाप है। दोनो का परिणाम भिन्न है। हम लोग कर्मवादी है। फल दोनो का ही मिलेगा! अरे तुम क्या पढ़ आए हो। यहाँ इसी में यह दाढ़ी सफेद हुई है―यह दाढ़ो।
जनमेजय―भगवन् , यह पौरव जनमेजय प्रणाम करता है। चाहे मुझसे और जो भूल हुई हो, किन्तु दक्षिणा मैने किसी को नहीं दी। वह आप ही के लिये रक्खी है।
काश्यप―(थाली लेकर) आशीर्वाद! कल्याण हो! क्यों न हो, हैं तो आप पौरवकुल के! फिर क्यो न ऐसी महत्ता रहे!
तुर―(हँस कर) तोक्यो महात्मन्, मुझे कुछ भी न मिलेगा? मैंने आपके यजमान के सब कृत्य कराए; और दक्षिणा―