भूल दिखलाई पड़ेगी, और न उत्तङ्क को घर जाने के लिये घबरा- हट ही होगी! वत्स उत्तङ्क! तुम पर मैं अन्तःकरण से प्रसन्न हूँ। तुम्हारे शील ने विद्या को और भी अलंकृत कर दिया है। अब तुम घर जा सकते हो। यद्यपि अभी मुझे इन्द्रप्रस्थ जाना पड़ेगा, पर तो भी मैं उसका कोई न कोई प्रबन्ध कर लूँगा। जनमेजय का अभिषेक होने वाला है। वह तक्षशिला विजय करके आया है। किन्तु काश्यप इसके विरुद्ध है। जब बुलावा आवेगा, तब जाने का प्रबन्ध करूँगा।
उत्तङ्क―क्यों गुरुदेव! काश्यप तो जनमेजय का पुरोहित है। फिर वह इसके विरुद्ध क्यो है?
वेद―राजकुल पर विशेष आतङ्क जमाने के लिये प्रायः वह विरोधी बन जाया करता है; और फिर पूरी दक्षिणा पा जाने पर प्रसन्न होता है। पर राजकुल भी उससे आन्तरिक द्वेष रखता है।
उत्तङ्क―अच्छा तो देव, गुरुदक्षिणा के सम्बन्ध में क्या आज्ञा होती है?
वेद―सौम्य, मै तुमसे इसी तरह प्रसन्न हूँ। दक्षिणा की कोई आवश्यकता नहीं।
उत्तङ्क―बिना दक्षिणा दिए विद्या सफल नहीं होती। कुछ तो आज्ञा कीजिए।
वेद―अच्छा, तो तुम अपनी इस सतृष्ण गुरुपत्नी से ही पूछ देखो।
उत्तङ्क―आर्ये, क्या आज्ञा है?