हमारे विकास के विरोधी हैं और अपने को जड़ ही मानते हैं, उन्हे रूप बदलना ही पड़ेगा। दूसरा परिवर्तन ही उन्हे हमारे पास ले आवेगा। हमारी दृष्टि साम्य की है। भ्रम ने जिन्हे हेय बना रक्खा है, जिन्हे पद-दलित कर रक्खा है, जो अपने को जड़ता का अवतार मानते हैं, जो धार्मिक होने के बदले दस्यु होने में ही अपना गौरव समझते हैं, उन्हे तो स्वयं हमारा रूप धारण करना होगा। यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। इसमे कोई दोष नहीं। विश्व मात्र एक अखण्ड व्यापार है। उसमे किसी का व्यक्ति-गत स्वार्थ नहीं है। परमात्मा के इस कार्य-मय शरीर में किस अङ्ग का बढ़ा हुआ और निरर्थक अंश लेकर कौन-सी कमी पूरी करनी चाहिए, यह सब लोग नहीं जानते। इसी से निजत्व और परकीयत्व के दुःख का अनुभव होता है। विश्व मात्र को एक रूप में देखने से यह सब सरल हो जाता है। तुम इसे धर्म और भगवान् का कार्य्य समझ कर करो, तुम ‘मुक्त’ हो। बस अर्जुन, इस विषम व्यापार को सम करो। दुर्वृत्त प्राणियो का हटाया जाना ही अच्छे विचारो को रक्षा है। आत्मसत्ता के प्रतारक सकुचित भावों को भस्म करो! लगा दो इसमें आग!
[अर्जुन खाण्डव-दाह करता है। बड़ा हल्ला मचता है। प्राणियों की बड़ी संख्या भस्म होती है। नाग लोग चिल्लाकर भागते है। ]
श्रीकृष्ण―सखे, सावधान! इसे बुझाने का प्रयत्न करने वाले
भी अपने आप को न बचा सकेंगे।
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