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जनमेजय का नाग-यज्ञ

और पशुओं मे भेद नहीं है। मनुष्य इसी लिए है कि वे पशु को भी मनुष्य बनावें। तात्पर्य यह कि सारी सृष्टि एक प्रेम की धारा मे वहे और अनन्त जोवन लाभ करे।

अर्जुन―किन्तु यह विषमता-पूर्ण विश्व क्या कभी एक-सा होगा? क्या जड़-चेतन, सुख-दुःख, दिन-रात, पाप-पुण्य आदि द्वन्द्व कभी एक होगे? क्या इनको समता होगी? मनुष्य यदि चेष्टा भी करे, तो क्या होगा?

श्रीकृष्ण―सखे! सृष्टि एक व्यापार है, कार्य है। उसका कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य है। फिर ऐसी निराशा क्यो? द्वन्द्व तो कल्पित है, भ्रम है। उसी का निवारण होना आवश्यक है। देखो, दिन का अप्रत्यक्ष होना ही रात्रि है; आलोक का अदर्शन ही अन्धकार है। ये विपक्षी द्वन्द्व अभाव हैं। क्या तुम कह सकते हो कि अभाव की भी कोई सत्ता है? कदापि नहीं।

अर्जुन―पर यदि कोई दुःख, रात्रि, जड़ता और पाप आदि को हो सत्ता माने, और अन्धकार को ही निश्चय जाने, तो?

श्रीकृष्ण―तो फिर जीव दुःख के भँवर में भी आनन्द को उत्कट अभिलाषा क्यो करता है? रात्रि के अन्धकार मे दीपक क्यों जलाता है? क्या यह वास्तविकता की ओर उसका झुकाव नहीं है? वयस्य, जिन पदार्थों की शक्ति अप्रकाशित रहती है, उन्हे लोग जड़ कहते हैं। किन्तु देखो जिन्हे हम जड़ कहते हैं, वे जब किसी विशेष मात्रा मे मिलते है, तब उनमे एक शक्ति उत्पन्न होती है, स्पन्दन होता है, जिसे जड़ता नहीं कह सकते। वास्तव में